जिसने मिलेनियल्स के बचपन में रंग भरे
जिसने मिलेनियल्स के बचपन में रंग भरे
आज सुबह हुई
थी
जैसे होती है
सुबह रोज़
मेट्रो भी
अपनी रफ्तार में थी
पर मोबाइल की
छोटी-सी स्क्रीन पर एक खबर चमकी
उस खबर ने
सहसा गुजरते समय को थाम लिया
जैसे घड़ी की
टिक-टिक एक पल को भूल गई हो
वो चला गया
जिसने हमारे
बचपन में चटख रंग भरे थे,
जब बचपन रंगों
से भरा होता है,
तो वह सिर्फ़
बचपन नहीं रहता
वह तो जादू हो
जाता है।
सहसा महसूस
हुआ,
आँखों में नमी थी
मेट्रो की
खिड़की से गुजरता शहर धुंधला रहा था
शायद मेरी
उदासी शहर में उतर आई थी
और फिर यादें
लौट आईं,
जैसे कोई पुरानी धुन बज उठी हो
रविवार की वो सुबहें
जब
दूरदर्शन—उस दौर का एकमात्र टीवी चैनल होता था
जब सफ़ेद-श्याम
पर्दे पर ‘चल मेरी लूना’ की चुलबुली आवाज़ गूँजती थी
तब हम बच्चे
‘साइकिल की सैर’ सपने में देखते थे
‘मिले सुर मेरा
तुम्हारा’ तो जैसे जादू बुनता था
हम गुनगुनाते
थे, कई-कई बार बेतरह
जैसे कोई
अनकहा नेशनल एंथम हो हमारा
तब कौन सोचता
था कि इनको रचने वाला एक आदमी है?
वह आदमी, जो हमारे बचपन की हिंदी को शब्द दे रहा था।
जयपुर की सुबह
ठंडी होती हैं
जहाँ वह कभी
पाँच साल का भी था
अलसुबह एक घर
में गूँजती सुरीली आवाज़
एक पिता कोशिश
करता
जगा दे उस भोर
में
लिहाफ़ में
गुड़मुड़ियाए अपने बच्चे को
एक गीत
गुनगुनाते हुए
“चिड़िया चूँ चूँ करके बोली,
भोर निकलकर आई
क्या?
बिटिया पड़ी
बिछौना पूछे,
अम्मा चाय
पकाई क्या?”
उन धुनों से उपजी सादगी इतनी सादी थी
कि वह उसकी ताक़त
बन गई
जब घरों के
बच्चे लगे थे डॉक्टर और इंजीनियर बनने की तैयारी में,
वह भविष्य के किसी
काम की टोह में था,
बाद में अक्सर
बताता था हँसकर कि
"डॉक्टर बनता, तो मरीज़ परेशान होते,
इंजीनियर बनता, तो घर टूट जाते"
शुक्र है उसने
कहानियाँ बुनीं
कहानियों में
चुनीं बचपन सी मासूमियत ।
बचपन सादा
होता है
सो सादी हिंदी
में बुने उसने मस्ती भरे सपने
‘गुगली-वुगली वूश’ की मस्ती
जैसे मस्ती को मिल गये हों नये शब्द ।
‘कुछ ख़ास है
ज़िंदगी में’
खास वो चॉकलेट
नहीं था
वह तो थी हर
किशोर होते बच्चे के दिल में छुपी
स्फुरण, नयी अंगड़ाई
तभी तो एक
लड़की मैदान में भागती थी,
जब लगता था, 99 रन पर छक्का
उसे रोकने की
खातिर दौड़े गार्ड्स को
हर बार ही तो
दे देती थी जो चकमा
चकमा-थिरकते
हुए
मस्ती में झुमते
हुए, सबको झुमाते हुए
बिना कहे
जोर-जोर से
कि ख़ुशी छोटी
जरूर होती है
पर वह एक खास उत्सव
होती है
जीना हो तो ऐसे
ही जीना ।
फिर हुआ ये कि
एक दिन उसने
फेविकॉल को
गोंद न रहने दिया
‘दम लगा के
हइसा’ ने सबको हँसी दी,
उदारीकरण की
लहर में उजड़े सभी को,
अपनी जड़ों से
जोड़ दिया ।
बचपन को रंगों
के चौखटे चाहिए
उस वक्त का शहर
छोटा जरूर था
‘हमारा बजाज़’
‘सेंटरफ़्रेश’, ‘हच नेटवर्क’
हम जहाँ गये, बचपन ने हमें फॉलो किया।
‘एशियन
पेंट्स के रंग अब घर-घर थे।
भले हमें पता नहीं
कि ये रंग क्यों?
पर उसने हमें
दिये।
आज हवा में धुंध
है
और एक जगह
खाली है
कल तक वह यहाँ
था
हमारे बीच, बचपन और रंगों की पैरवी करता हुआ
वह सिर्फ़ एक विज्ञापनकार
नहीं था
वह एक कवि था, बचपन के उत्सव का
वह एक मास्टर क्राफ्ट्समैन
था
जिसने सादी
हिंदी में हमारे सपने बुने
उसकी आवाज़ें
चहकदमी करती हैं आज तक
जो घेरे रहती थीं कभी हमें, हमारे बचपन में ।
यह
श्रद्धांजलि नहीं
यह उन बच्चों
का प्रेम-पत्र है,
जिनके बचपन को
उसने जादुई बनाया
वह गया नहीं
हैं
वह हमारे बीच ही
है
हर उस जिंगल
में ,
जो हमें गुदगुदाता है
हर उस
विज्ञापन में, जो हमें रुलाता है
हर उस याद में, जो हमारे दिलों में लिखी गई है
और लिखीं इबारतें
आसानी से नहीं मिटतीं।
अलविदा पीयूष
पांडे!

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