पाठ की समझ बनाम पाठक की भूमिका
लेखक,पाठक, शिक्षक/आलोचक बनाम पाठ का मतलब
किसी किताब या
पाठ को समझने में पाठक की ख़ुद की भूमिका पर बात करने के लिए मैं स्वयं को यहाँ एक
पाठक के रूप में रखना चाहूँगा। मेरा ‘पाठ और किताबों (खासकर साहित्य) से’
सिलसिलेवार एवं व्यवहारिक रूप से परिचय स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही हुआ। अपने अनुभव
और समझ के विस्तार की प्रक्रिया में किताबों से जुड़ना मेरे जीवन की बड़ी घटना थी। अलग-अलग
विषय थे, पाठ थे और किताबें थीं। उनकी अभिव्यक्ति भी थी। उस दौरान जहाँ अपने पसंदीदा
पाठ से जीवन भर चलने वाला रिश्ता बना, साथ ही उन पर चर्चा और व्याख्या का लम्बा
दौर भी चला। कक्षा और कक्षा के बाहर एक ही पाठ की कई व्याख्याएं थीं। यदि
भाषा-साहित्य की बात करूँ तो ‘साहित्य के शिक्षक’ के अनुसार कई बार मैं सही-सही
अनुमान लगा पाया था। लेकिन बहुत सारे मौके ऐसे भी थे जहाँ मेरी ‘पाठ की समझ’ को
ख़ारिज भी कर दिया गया। उस वक्त तो यही लगता था कि पाठ के विषय में शिक्षकों की समझ बेहतर है। उनके अनुभव भी
विस्तृत एवं व्यापक हैं। इसलिए वे यह तय कर सकते हैं कि पाठ के संबंध में कौन से
विचार सही हैं या कौन नहीं। ‘मूल्यांकन का होना’ इस विचार को पुख्ता ही करता था।
बाद के वर्षों में एक पाठक के रूप में सोचते हुए इस विषय पर सहमति-असहमति का लम्बा
दौर चला। शायद अब तक भी है। एक ही प्रश्न की अनेक शक्लें थीं। मसलन किसी भी पाठ की
व्याख्या का कोई मानक आधार है? और अगर है तो वह कौन तय करता है? अगर ‘मानक
व्याख्या और व्याख्याकार’ दोनों पहले से ही तय हैं तो फिर मैं सीधे व्याख्या ही
क्यों न पढूं? पाठ पढ़ने की क्या आवश्यकता है? फिर सवाल उठता है कि किस आलोचक की
व्याख्या को पढ़ा जाय? फिर पाठक के रूप में मेरी भूमिका क्या होगी? मैं पढ़ता ही क्यों
हूँ?’
प्रोफेसर कृष्ण
कुमार अपने आलेख ‘पढ़ना, बचपन और साहित्य’ में लिखते हैं कि पढ़ना एक खिड़की की तरह
है जो फ़िलहाल बंद पड़ी है, मगर हमारे प्रयासों से खुल सकती है, जो पढ़ नहीं सकता
उसके लिए वह खिड़की बंद ही रहेगी।
साहित्यिक
सिद्धांत यानि पाठ में पाठक की भूमिका
हम पारंपरिक सिद्धांत, रोलां बार्थ की साहित्यिक आलोचना ‘The
Death of Author’ और रोजेन ब्लाट के पढ़ने के व्यवहारिक सिद्धांत के आधार पर विचार करेंगे।
पारंपरिक
सिद्धांत के अनुसार यह माना जाता है कि लेखक द्वारा लिखे गए पाठ का सही मतलब
शिक्षक या आलोचक ही समझाएंगे। या फिर इस बात तक पहुँचने पर ज्यादा जोर था कि लेखक
पाठ में क्या कह रहा है? इन सिद्धांतों में किसी पाठ के समझने में पाठक की दृष्टि एवं
विचार की कोई मान्य भूमिका नहीं थी।
परन्तु रोलां
बार्थ ने अपनी पुस्तक ‘The Death of Author’ में पाठक की भूमिका
को स्पष्ट किया है। उनके अनुसार “पाठक के जन्म के साथ ही लेखक की भूमिका उस पाठ या
लेखन के सन्दर्भ में ख़त्म हो जाती है”। यानि लेखक ने अपनी बात कह दी है। अब पाठ की
जिम्मेदारी उसके पाठक पर है... और पाठक कोई एक तो नहीं है। इसलिए पाठ को लेकर
भिन्न-भिन्न विचार हो सकते हैं। रोलां बार्थ ने साहित्य के कार्यात्मक स्वरुप
पर अधिक बल दिया है। यानि कि जिसमें पाठ से अधिक उसके आस्वादन पर और लेखक से अधिक पाठक
की मानसिकता पर ध्यान दिया जाता है। अपनी पुस्तक में वे पाठक और लेखक की प्रचलित
मान्यता पर रोक लगाते हुए इनके नए स्वरूपों की घोषणा करते हैं। उनके अनुसार लेखन हर प्रकार से अपने ही मूल के
विध्वंस का आगाज़ करता है। इस प्रकार बार्थ पाठ से उसके लेखक को अलग कर देते हैं।
ठीक इसी जगह वे लेखक की मृत्यु की घोषणा करते हुए पाठक को प्रस्तुत करते हैं।
बार्थ के अनुसार लेखक लिखता या बोलता नहीं, बल्कि रचना की भाषा लिखती या बोलती है।
संरचनावादी भाषिकी में कहा जाता है कि ‘लैंग्वेज स्पीक्स नॉट मैन’। इस प्रकार
बार्थ के कहे का यह अर्थ निकलता है कि पाठ का लक्ष्य उसके आरम्भ (लेखक) में सीमित
न होकर पाठ के अंत या उद्देश्य पर लक्षित है। यानि पाठ का उत्स लेखक न होकर पाठक
या पठनीयता होनी चाहिए। बार्थ ने लेखक को उसकी बहुप्रचारित जिम्मेदारियों से मुक्त
कर दिया। अब लेखक रचना के केंद्र में न
होकर विकेन्द्रित हो गया है। अब वह हर पाठ में अलग-अलग रूपों में अपनी उपस्थिति
दर्ज कर सकता है। प्रत्येक पाठक अब लेखक की हैसियत रखता है।
रोसेनब्लैट के
पढ़ने के ‘लेन-देन सिद्धांत (Transactional
theory) के अनुसार एक पृष्ठ पर छपे शब्द/अक्षर स्याही की सहायता से
मात्र उकेरे भर गए होते हैं, जबतक कि पाठक उनसे अर्थ निकालने के लिए संवाद शुरू
नहीं करता। हर पाठ में पाठक स्वतः अन्तर्निहित होता है। प्रत्येक
"लेन-देन" एक अनूठा अनुभव है, जिसमें पाठक और पाठ निरंतर कार्य करते हैं।
दोनों के द्वारा ही पठन का अभिनय किया जाता है। इस प्रक्रिया में पाठ और पाठक
दोनों का बराबर महत्व है। जो पाठ पर्याप्त रूप से मजबूत एवं बहुआयामी होते हैं, उन्हें
निश्चित रूप से विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पाठकों के बड़े वर्ग द्वारा
पढ़ा जाता है।
रोसेनबल्ट ने पाठक
किसी भी पाठ को कैसे समझता है, उसके तरीकों पर विमर्श किया है। उन्होंने पाठ के दो
तरीके को बताए हैं- "बहिर्वाही पठन (Efferent)" और "सौंदर्यवादी
पठन(Aesthetic)"। बहिर्वाही पठन में पाठक पढ़ते हुए सूचना, उसका सन्देश अपने
तरीके से निकाल सकता है। वह इस बात की जरा भी परवाह नहीं करता कि पाठ में शब्द-विशेष
को कैसे लिखा गया है? वह समग्रता से पाठ के सार, सूचना आदि को समझने में दिलचस्पी
लेता है। जिसे वह पढ़ने के बाद सरलता ग्रहण कर सके या ले जा सके। ‘पाठ को कितना
सुन्दर तरीके से लिखा गया है या कितने करीने से शब्दों को पिरोया गया है’ इन बातों
में उसकी कोई विशेष दिलचस्पी नहीं होती । इसके विपरीत, यदि कोई पाठक औपचारिक
विशेषताओं जैसे शब्द-संयोजन, उनकी लय, बिम्ब विधान, अर्थ आदि का आनंद लेने के लिए पढ़ता है, तो वह
पठन "सौंदर्यपूर्ण" होता है। यह ठीक उसी तरह होता है जैसे कि किसी मधुर
संगीत को सुनना या फिर एक सुंदर पेंटिंग देखना। किसी चीज़ को सुंदर समझना, सुंदर
पक्ष को व्याख्यायित करना ही "सौंदर्यवादी" का अर्थ है। इसके लिए पाठक
को निरंतर अपने अनुभवों में इजाफ़ा करना जरूरी हो जाता है, ताकि वह किसी शब्द का
सौंदर्य और शब्दार्थों का विस्तार कर सके। इससे कहीं न कहीं पाठक को पाठ में खुद
को प्रतिबिंबित करने और उसके स्व-आलोचना में मदद मिलती है।
सिद्धांतों की व्यवहारिकता: सन्दर्भ – ‘नंगू-नंगू नाच’
उपरोक्त
सिद्धातों की पुष्टि के उदाहरणार्थ मैं एकलव्य द्वारा प्रकाशित ऋचा झा की किताब ‘नंगू-नंगू
नाच’ को लेकर कुछ बातें यहाँ लिखना चाहूँगा। एक कोर्स के दौरान ‘बच्चा और बचपन’ सत्र में हमारी टीम ने इस किताब पर चर्चा की थी।
उसके बाद एक ग्रुप प्रेजेंटेशन भी किया था। कांटेक्ट सत्र के अन्य सत्रों में भी इस
किताब की चर्चा अलग-अलग सन्दर्भों में होती रही। जिसका सीधा-सीधा अर्थ यही था कि प्रतिभागी
अपने-अपने तरीके एवं अनुभवों के आधार पर इसे समझने की कोशिश में थे।
नंगू-नंगू नाच
किताब के समर्पण में लेखिका ने ‘उन सारे जंगलियों के लिए’ तथा चित्रकार रूचि मह्साणे
ने ‘उन सारे बड़ों और बच्चों के लिए, जो आज़ाद होने का इंतजार कर रहे हैं’ लिख कर एक
तरह से अपनी भूमिका तय कर दी है।
इस किताब को
लेकर विभिन्न मौकों पर प्रतिभागी साथियों के बीच जो बातें हुई थीं, मैं उन बातों
को विभिन्न सिद्धांतों के अनुसार वर्गीकृत कर यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ।
‘नंगू-नंगू नाच’
को अगर पारंपरिक सिद्धांत से समझा जाय तो सर्वप्रथम लेखिका की अन्य प्रकाशित
किताबों और उनके द्वारा एलीट वर्ग के विषयों के चयन की पुष्टि होती है। लेखिका इस
किताब के माध्यम से बताना चाहती है कि सामान्यतः बच्चों को कपड़े पहनना पसंद नहीं
होता। उन्हें उनके बिना रहना और घूमना पसंद है। उनके लिए यह एक मज़ेदार जादू जैसा
है। बड़े इसके लिए उन्हें रोकते-टोकते, मना करते हैं। जैसे कि कहानी में नन्नू कहती
हैं कि कुछ पहन लो। बच्चों की हर बात का बड़ों के पास जवाब है। मसलन मनुष्य बिल्ली
नहीं है कि उसे उसकी तरह रहना चाहिए। बच्चे तो जिद करते हैं कि उनके हिसाब से काम
किया जाय जैसे कि जैसे इस कहानी में लड़की अपनी दादी और मम्मी से कहती है। चूँकि इस
कहानी की पृष्ठभूमि एक उच्चवर्गीय परिवार की है और लेखिका भी उन्हीं की कहनियाँ
कहती हैं। इसलिए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह लेखक की अपनी आपबीती हो। परन्तु
यह बात सभी जगह लागू नहीं हो सकती। इस तरह हमारी चर्चा के केंद्र में लेखक ही
प्रमुखता से रहा था।
(चर्चा
के दौरान इस तरह के अनके विचार सामने आए कि लेखक क्या कहता है? क्या समझाना चाहता
है? जरूरी नहीं कि उसकी जो पृष्ठभूमि हो वही सबकी हो आदि।)
रोलां बार्थ लेखक
के अतीत, उसके अनुभव, उसकी निजता, मनोवृत, मनोविश्लेष्ण, खोज-बीन एवं इतिहास आदि जिनसे
भी लेखक के स्व (सेल्फ) को जाना जा सके, उसके पूर्ण निषेध की बात करते हैं। इसके
बाद सारा दायित्व पाठ का बचता है। वह स्वयं को सेचुरेटेड डोमेन अर्थात पाठ किसी
अन्य पर आलाम्बित नहीं होकर स्वयं के स्थितियों में घटित होने को तैयार होता है।
इस अवधारणा के कारण रचनाकार एवं पाठक दोनों ही उपस्थित समय को गतिशील बना देते हैं।
हमारी टीम ने चर्चा
एवं प्रस्तुतिकरण के लिए इस किताब का चयन ही अपने अनुभवों के आधार पर किया था।
हमारी नजर बाद में किताब के समर्पण पर गयी थी, जहाँ चित्रकार इसे स्वतंत्रता खोजने
वालों को समर्पित करती हैं। यह किताब बच्चों या कहें तो सभी उम्र के लोगों की स्वतंत्रता
के पक्ष में खड़ी दिखती है। मुख्य पात्र के रूप में एक बच्ची, उसकी दादी, मम्मी और एक
बिल्ली हैं। सभी किरदार स्त्री हैं। वर्तमान समय में स्वतंत्रता की मांग और स्त्री
एक दूसरे के पर्याय हैं। हमने प्रसिद्द दार्शनिक एवं शिक्षाविद रूसो के एक उद्धरण
को आधार बनाकर अपनी बात रखी थी कि – “बच्चा स्वतंत्र ही पैदा होता है। लेकिन पैदा
होते ही वह समाज के रूढ़िवादिता की बेड़ियों में जकड़ा जाता है।”
हमारी टीम के हर
पाठक अपने अनुभवों के हिसाब
से पाठ कर रहे थे। सबके लिए पूरी किताब का स्वर अभिधा और व्यंजना में ‘हर तरह
की स्वतंत्रता’ से था। पात्रों के संवाद और व्यवहार से परिवार के वर्ग का बोध भी था।
कुल मिलाकर हमने इसे समझने में अपने अनुभवों के साथ-साथ पाठ और उसके पुनर्पाठ को
ही केंद्र में रखा था।
‘नंगू-नंगू नाच’ पर चर्चा के दौरान ऐसा नहीं था कि टीम के सभी सदस्य व्याख्या को लेकर एकमत थे। सभी अपने अनुभवों के आधार पर अर्थ और भाव को देख- परख रहे थे और उसे व्याख्यायित भी कर रहे थे। मसलन प्रथम पृष्ठ पर
- “ये मैं
हूँ। पर तुम मुझे देख नहीं सकती।” चित्र में एक बिल्ली बच्ची को देख रही थी। कुछ
चिड़ियाँ उसके इर्द-गिर्द बैठी हुई थीं।
टीम के एक
सदस्य का कहना था कि बच्ची ने अपने टी-शर्ट से चेहरा छुपाया हुआ है। इसलिए बिल्ली
उसे पहचान नहीं सकती।
दूसरे सदस्य का
मानना था कि चूँकि बच्ची बिल्ली को देख नहीं सकती इसलिए वह यह समझ रही है कि
बिल्ली भी उसे नहीं देख सकती।
अन्य सदस्य ने बिलकुल
सीधी बात कही थी कि किसी को स्वतंत्र और बंधे हुए देखना अलग-अलग अनुभव है। इतना
अलग कि शायद उसे पहचाना भी न जा सके। उनकी बात सुनकर लगा मानों उन्होंने कोई अपना
अनुभव या पाठ का सार ही सामने रख दिया हो।
दूसरे पृष्ठ पर
बच्ची ने कपड़े उतार दिए थे। वह नाच रही थी। उसकी बिल्ली भी नाचने लगी थी। आस-पास
की हवा चलने लगी थी। चिड़ियाँ उड़ने लगी थी।
सबकुछ इतना
सजीव चित्रित किया गया था कि हम अपने अलग-अलग समय में महसूस किए गए इस तरह के
अनुभवों को साझा करने लगे थे।
स्वतंत्रता के
सौन्दर्य को बहुत ही अद्भुत तरीके से किताब में उभारा गया है। शब्दों में भी और चित्र
में भी।
“जब
मैं घूमती हूँ... और थिरकती हूँ... तो जादू सा लहराने लगता है।”
“क्या
मज़ा है न... नंगा रहने में।”
हवा में लहराती
बच्ची है। थिरकती हुई, झूमती हुई। अलग-अलग मुद्राओं में उसके साथ उभरती-थिरकती
उसकी गुलाबी परछाइयाँ हैं।
पढ़ते हुए सिर्फ
आज़ाद हवा में ख़ुशी से झूमती हुई लड़की दिखती है। यहाँ कहीं न कहीं हम अपने आज़ाद
अनुभवों को लड़की से जोड़ते हैं। पाठ का विस्तार होता चला जाता है। पाठ में रहते हुए
पाठक को किसी तरह के विभेद ध्यान में नहीं आते मसलन – लिंग, उम्र, वर्ग आदि।
कुछ सदस्य ऐसे
भी थे जिनको इस पाठ से असहमति रही थी। या कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने इसके सन्दर्भों को
उद्धृत करते हुए किसी सार्वभौमिक तथ्य को झुठलाने की भी कोशिश की थी।
इस जगह एक बात
मैं विशेष रूप से उद्धृत करना चाहूँगा कि एक पाठक और पाठ दोनों के उद्देश्य काफी
भिन्न हो सकते हैं। यदि पाठ, पाठकों के उद्देश्यों का समर्थन करने के लिए पर्याप्त
रूप से मजबूत नहीं है।
तो पाठक को यह नहीं मानना चाहिए कि पाठ और पाठक के बीच जो ‘लेन-देन’ का अनुबंध
है वह प्रभावित हो रहा है।
पाठकीय
तैयारी के कुछ मानक
किसी भी किताब
या पाठ के समझने में पाठक की पूर्व तैयारी में निम्नलिखित बातों को मानक के रूप
में भी शामिल किया जा सकता है।
1. पढ़ने का अभ्यास – पाठक को इस बात की समझ होनी चाहिए कि पढ़ना
मतलब सिर्फ शब्द और अक्षरों को जोड़कर पढ़ना या वाक्यांश को पढ़ लेना नहीं है। बल्कि
उसमें से अर्थ ढूँढने से है। यह लिखे हुए में अपने अनुभव और अनुमान जोड़ने से आते
हैं। इस प्रकार पाठ को पढ़ना ही नहीं बल्कि
अपने चारों ओर बिखरी अथाह लिखित और मुद्रित सामग्री को पढ़ पाना और उसमें से अपने
लिए कुछ निकाल पाना ही असल मायनों में पढ़ना है।
2. भाषा की समझ – किसी भी पाठक के लिए भाषा एक औजार है जिसका
इस्तेमाल वह जिंदगी को समझने के लिए, उससे जुड़ने के लिए और समाज को प्रस्तुत करने
के लिए करता है। भाषा सम्प्रेषण का साधन ही नहीं बल्कि यह एक ऐसा माध्यम है जिसके
सारे वह अधिकांश जानकारी प्राप्त करता है। यह एक ऐसी व्यस्था है जो बहुत हद तक
परिवेश की वास्तविकताओं और घटनाओं को पाठक के मन-मस्तिष्क में व्यवस्थित करती है।
विभिन्न विषय क्षेत्रों जैसे इतिहास, विज्ञान अथवा गणित आदि में समझ विकसित करने
के लिए भाषा मददगार होती है। साथ ही यह आजादी से सोचने और मौलिकता को बढ़ावा भी
देती है। भाषा के उच्च स्तरीय कौशल तो ‘पढ़ने’
की परिभाषा को कहीं और दूर ले जाते हैं। उनके अनुसार पढ़ने के प्रति सदैव एक ललक
लिए रहना, साहित्य का रसास्वादन करना, अपने सामाजिक परिवेश को समझकर उसके प्रति
आलोचनात्मक दृष्टिकोण विकसित करना ही पढ़ना है।
3. बहुभाषिकता और एक समृद्ध शब्दावली – बहुभाषिकता हमारे जीवन
का अहम् हिस्सा है। हमारी संस्कृति हमारी अस्मिता से जुड़ा हुआ। हम सभी बहुभाषी हैं
और हमारा बहुभाषी होना हमें दूसरों से जुड़ने में और उनको समझने में मदद करता है।
विभिन्न सदर्भों जैसे आर्थिक, सामाजिक जीवन, राष्ट्र, उसकी भाषा, संस्कृति आदि।
पाठक अपनी मातृभाषा समझता है। जिसमें आस-पास के परिवेश में उसका परिवेश मजबूती से
झांकता है। बहुभाषिकता एक पुल की तरह होती है जो कहीं न कहीं शब्दकोष एवं विभिन्न
सन्दर्भों को बढ़ाने और समझ को विस्तार देने में मदद करती है। इसलिए भाषा, विशेषकर
मातृभाषा पर पाठक की पकड़ होनी चाहिए साथ ही अन्य भाषाओँ को सीखने में भी रूचि हो।
जिससे कि रचनात्मक बना रहे। पाठ के व्यापक मायने खुलें।
4. आलोचना यानि समस्या समाधान की प्रक्रिया – अपने जीवन के
विरोधाभास को समझना एवं उसके समाधान के लिए प्रयत्नशील रहना कहीं न कहीं पाठ से
जोड़ने में मदद करता है। ज्यांक देरिदा संरचनावाद पर लिखते हैं कि रचना का पाठ उसमें
ही अन्तर्निहित होता है। किसी भी पाठ को लेकर इकहरी सोच कहीं न कहीं आपको एक दायरे
में बंद कर देती है। इससे कहीं न कहीं परिवेश को जानने की इच्छा कम होती जाती है
और हम दुहराव की स्थिति में चले जाते हैं। यह दुहराव की स्थिति हमें बहुस्तरीय
सामाजिक विचारों एवं प्रश्नों से दूर कर देती है। पढ़ना और चिंतन दोनों प्रभावित
होते हैं। इसलिए पाठ करते वक्त आलोचनात्मक दृष्टि रहनी चाहिए ताकि समस्या और उनके
संभावित समाधानों को लेकर पढ़ना हो सके। इसलिए पढ़ते हुए वास्तव में सक्रिय रहने और
अर्थ पर गौर करने की जरूरत होती है साथ ही आनंद की ताकि यह यात्रा चलती रहे। इसके
लिए अभ्यास की जरूरत होती है।
उपरोक्त भूमिकाओं के साथ-साथ पाठक में जिज्ञासा एवं नए सन्दर्भों से खुद को
जोड़ पाना, अपनी पहचान, अपने अस्तिव को लेकर अवधारणा, कला को लेकर एक समझ, अपनी बात
को संप्रेषित करने की रूचि के साथ-साथ समानुभूति एवं सुख/ दुःख/आनंद/ जिज्ञासा के
लिए पढ़ना भी उनकी तैयारी में शामिल हो सकता है।
किसी पाठ की कई व्याख्याएं होती ही हैं। लेकिन उसकी कोई भी व्याख्या पाठ का
अंतिम सत्य नहीं होती। देशकाल के साथ ही पाठक की पृष्ठभूमि व उसकी समझ पाठ की
व्याख्या में अहम् भूमिका अदा करती है। कभी भी पाठक किसी भी पाठ का सम्पूर्ण सत्य
नहीं पाता, बल्कि उस सत्य तक पहुँचने के रास्ते में जो छोटे-छोटे लेकिन बेशक
महत्वपूर्ण अर्थ पाठक तक आते हैं , वही पाठक का प्राप्य हैं... और समूहों में
अलग-अलग पाठकों के द्वारा भिन्न-भिन्न व्याख्याओं तक पहुँचने की जो चेष्टा होती है
वह पाठ एवं पाठक दोनों को समृद्ध करती है।
संदर्भ
–
समझ का माध्यम,
राष्ट्रीय परिसंवाद 2008-2010 पर आधारित, NCERT
पढ़ने की दहलीज़
पर, NCERT
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सोचना, कृष्ण कुमार, इकतारा-भोपाल
आलेख – द डेथ
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