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बीत रहे कथा कहानियों के दिन...

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पिछले दिनों हिन्दी बाल साहित्य के एक लेखक से ‘कहानी सुनने-सुनाने’ की प्रक्रिया पर चर्चा हो रही थी। उनका कहना था कि किसी अभिभावक/माता-पिता या शिक्षक जो बच्चों के साथ उनके सीखने पर काम करते हैं, उन्हें कम से कम 15 से 20 कहानियाँ और 25 से 30 कविताएँ याद होनी ही चाहिए। बातचीत के दौरान मैं गौर से उनके चेहरे के बदलते भावों को पढ़ने की कोशिश करता रहा। जो ‘कहानी सुनाने’ की संस्कृति के माहौल  को लेकर चिंतित लग रहे थे। यह चिंता कोई अकारण नहीं है। हमें इस बात को स्वीकार लेना चाहिए कि कहानी या कविताओं की जिन संख्याओं का जिक्र उन्होंने किया, हममें से अधिकांश लोगों के पास उसकी आधी संख्या में सुनाने लायक कहानियाँ या कविताएँ नहीं है। जिनके पास हैं तो  उनके पास उन्हें सुनाने का आत्मविश्वास या अभ्यास नहीं है। कहानी सुनने की बात चली है तो ऑनलाइन माध्यमों पर विभिन्न फोर्मेट्स में उपलब्ध कहानियों का जिक्र यहाँ जरूरी हो जाता है। इंटरनेट के बढ़ते प्रभाव के बावजूद सुनने लायक कहानियों के प्लेटफ़ॉर्म सीमित ही हैं। जो हैं भी उन तक ज्यादातर श्रोताओं की पहुँच नहीं है। अगर आपकी जानकारी में ऐसे पॉडकास्ट या चैनल्स हैं भ

किताबों के मेले में बच्चा

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मार्च महीने के पहले हफ्ते में विश्व पुस्तक मेले का समापन हो गया। एक पाठक के रूप में किताबों के इस तरह के समारोह मेरे अनुभवों में कुछ न कुछ जोड़ जाते हैं। बाल साहित्य के क्षेत्र में काम करते हुए दशक भर बीत गए। इसलिए पुस्तक मेलों में मेरा समय ज्यादातर चिल्ड्रन पैवेलियन या भारतीय भाषाओं में बाल साहित्य के प्रकाशकों के स्टाल पर किताबें देखते बीता। किताबों के साथ-साथ उन चेहरों पर भी मेरी नज़र होती है जो उन स्टाल तक चले आते हैं। अपने माता पिता , अभिभावक या बड़े भाई बहनों के साथ। दस -बारह साल तक के बच्चों की स्थिति यही होती है। इससे बड़ी उम्र के बच्चे अकेले भी किताबें ब्राउज करते दिखते हैं।  मेले में एक शाम सात साल की एक बच्ची अपने पिता के साथ एक नाम प्रकाशक के स्टाल पर किताबें खरीदने आई।  कुछ देर तक वह इधर-उधर कतार से जमाई गई किताबों को देखती रही। जिनतक उसकी पहुँच थी , उनमें से कुछ किताबों को वह उठाती, उसके  पन्ने उलटती-पलटती। फिर उन्हें वापस उसी वहीँ रख देती। मैंने महसूस किया कि बाल साहित्य प्रकाशनों के स्टाल पर डिस्प्ले की गई किताबों का दो तिहाई हिस्सा छोटी उम्र के बच्चों की पहुँच से बाहर ही