बीत रहे कथा कहानियों के दिन...
पिछले दिनों हिन्दी बाल साहित्य के एक लेखक से ‘कहानी सुनने-सुनाने’ की प्रक्रिया पर चर्चा हो रही थी। उनका कहना था कि किसी अभिभावक/माता-पिता या शिक्षक जो बच्चों के साथ उनके सीखने पर काम करते हैं, उन्हें कम से कम 15 से 20 कहानियाँ और 25 से 30 कविताएँ याद होनी ही चाहिए। बातचीत के दौरान मैं गौर से उनके चेहरे के बदलते भावों को पढ़ने की कोशिश करता रहा। जो ‘कहानी सुनाने’ की संस्कृति के माहौल को लेकर चिंतित लग रहे थे। यह चिंता कोई अकारण नहीं है। हमें इस बात को स्वीकार लेना चाहिए कि कहानी या कविताओं की जिन संख्याओं का जिक्र उन्होंने किया, हममें से अधिकांश लोगों के पास उसकी आधी संख्या में सुनाने लायक कहानियाँ या कविताएँ नहीं है। जिनके पास हैं तो उनके पास उन्हें सुनाने का आत्मविश्वास या अभ्यास नहीं है। कहानी सुनने की बात चली है तो ऑनलाइन माध्यमों पर विभिन्न फोर्मेट्स में उपलब्ध कहानियों का जिक्र यहाँ जरूरी हो जाता है। इंटरनेट के बढ़ते प्रभाव के बावजूद सुनने लायक कहानियों के प्लेटफ़ॉर्म सीमित ही हैं। जो हैं भी उन तक ज्यादातर श्रोताओं की पहुँच नहीं है। अगर आपकी जानकारी में ऐसे पॉडकास्ट या चैनल्स हैं भ