एक ख़त AA Milne के नाम
चलते चित्र - 01
27 दिसंबर 2023
रात्रि 10:33 बजे
राजनगर एक्सटेंशन
गाजियाबाद
डियर
AA Milne,
मैं
आपकी रचनाओं विशेषकर ‘विनि द पूह’ के उपन्यास शृंखला का प्रशंसक हूँ। मेरे बचपन के
वे चंद बेहतरीन लम्हे रहे थे, जिनमें मैंने इन कहानियों को पढ़ा था। शहद के प्रशंसक
बेयर को आपने हर युवा पाठक का दुलारा बना दिया है।
आज
की रात जब आपको पत्र लिखने बैठा हूँ तो दिसम्बर के आखिरी हफ्ते का तीसरा दिन गुजर
चुका है। दिन भर के काम के बाद मेरी कोशिश रहती है कि जल्दी ही नींद के आगोश में
चला जाऊँ। सच कहूँ घड़ी की सूइयाँ मुझे भगाने लगी हैं। परंतु आज नींद जल्दी नहीं आएगी
ऐसा लगता है। इसलिए बेड पर बैठा कुछ लिखने की कोशिश में हूँ। पर हर कोशिश कामयाब हो
जाए ऐसा होता तो नहीं। सामने दीवार पर टंगे गुलाबी आदमकद बेयर की वजह से मेरा ध्यान
बार-बार टूटता है। जब-जब उसे देखता हूँ पता नहीं क्यों वो हर बार एक ही दिशा में
अचरज भारी निगाहों से कुछ निहारता दिखता है। मेरी पार्टनर अपनी रायटिंग टेबल पर अपने
नई कहानी के पेंचोंखम में उलझी हुई है। जबकि मेरे बगल में बेड पर लेटी मेरी चार
साल की बेटी अभी-अभी अपने सपनों की दुनिया की सैर पर निकल चुकी है। उसके सिरहाने,
तकिये के पास रखी नीले रंग के जुराब में है एक छोटू सी गुड़िया। जिसे उसके साँता ने
(मैंने 😊)
इस क्रिसमस की सुबह गिफ्ट किया था।
आज
सोने से पहले मैंने उसे एक कहानी सुनाई है। एक साँता की कहानी, जिसकी बौनों की
टोली पूरे साल खिलौने बनाती रहती है और गिफ्ट पैक करती रहती है। ताकि क्रिसमस पर साँता
दुनिया भर के बच्चों को उपहार दे सके, जो उन्होंने उससे माँगे थे। ज्यों-ज्यों
क्रिसमस का दिन नजदीक आता जाता, ढेर सारे खिलौने तैयार करने को लेकर उसकी हड़बड़ाहट
बढ़ती जाती। कई खिलौने समय से तैयार भी नहीं हुए थे। बौने समय से काम पूरा नहीं कर पाने
की वजह से शर्मिंदा हैं। अफरातफरी में वह एक बौनी को गिफ्ट के रूप में उस बच्ची की
जुराब में रख आता है, जिसने उससे इस बार एक छोटी-सी गुड़िया माँगी थी। उफ्फ़! कितनी
जिम्मेदारी वाला काम होगा न साँता का। प्रतीकात्मक ही सही, बच्चों की भावनाओं और
कहानियों के लिए ही सही। पर कितने अफसोस की बात है कि अपने देश में कुछ लोग इन
नाजुक भावनाओं को भी जलाना चाहते हैं। (संदर्भ – आगरा में साँता क्लॉज का पुतला दहन)
खैर,
मैं भी न जाने किन बातों में उलझ जाता हूँ। बातों में यह भूल गया था कि आपको किस
वजह से पत्र लिखने बैठा था। इस क्रिसमस की शाम मैंने एक फिल्म देखी – क्रिस्टोफ़र
रॉबिन। आप के ही उपन्यासों से आगे की कहानी दिखाई गई है इसमें। इस पत्र का
उद्देश्य ही यही है कि आपको इस फिल्म की कहानी बताऊँ और इसपर थोड़े सवाल आपसे पूछ
लूँ। आप तसल्ली से जवाब दीजिएगा। मुझे कोई हड़बड़ी नहीं। वैसे एक बात
पूछूँ – आपको सवाल परेशान तो नहीं करते न!।‘
आपने
‘विनि द पूह’ की कहानी जहाँ खत्म की थी, यह फिल्म यहाँ से शुरू होती है। फिल्म में
आपका पात्र (असल जिंदगी में आपका बेटा) क्रिस्टोफ़र रॉबिन बोर्डिंग स्कूल भेज दिया
जाता है। बोर्डिंग स्कूल जाने से पहले 100 एकड़
वुड्स में एक फेयरवेल पार्टी होती है। उसके सभी दोस्त विनी द पूह, पिगलेट, ईयोर, टाइगर, रैबिट, कांगारू और आउल सभी खुश हैं। सभी उसके बारे में
अच्छी बातें कहते हैं। पार्टी में केक खाने को जो मिल रहा है। रॉबिन उनसे कहता है
कि वह उन्हें कभी नहीं भूलेगा। हमेशा साथ होगा, जब भी उन्हें उसकी जरूरत होगी।
बोर्डिंग स्कूल में रॉबिन अपने दोस्तों को बहुत मिस करता है, विशेषकर विनि द पूह को। स्कूल के नए माहौल में उसे बहुत कुछ सीखना है... विशेषकर पढ़ाई और अनुशासन। इस बीच उसके पिता की असमय देहांत की एक बुरी खबर आती है। इस घटना का गहरा असर रॉबिन पर होता है। अचानक बचपने से वह परिपक्व हो जाता है। बदलते स्वभाव की वजह से वह भूल जाता है कि 100 एकड़ वुड्स उसके दोस्त भी हैं, जिनसे उसने वादा किया था कि वह उन्हें कभी नहीं भूलेगा।
रॉबिन
की शादी एक आर्किटेक्चर एवलिन से होती है। दोनों की एक बेटी भी है जिसका नाम
मेडलिन है। द्वितीय विश्व युद्ध में वह ब्रिटिश आर्मी की तरफ से भाग लेता है।
युद्ध के पश्चात एक सूटकेस की कंपनी में निदेशक के पद पर काम शुरू करता है जहाँ वह
एफ़िशिएनसी पर काम कर रहा होता है। नौकरी की व्यस्तता की वजह से वह अपने परिवार को
समय नहीं दे पाता। मेडलीन को यह बात बुरी लगती है। इधर उसकी कंपनी सूटकेस की लागत
को बीस प्रतिशत कम करने का जिम्मा देती है। अन्यथा कुछ लोगों को अपनी जॉब से हाथ
धोना पड़ सकता है।
गर्मियों
के सप्ताहांत पर उसने अपने परिवार के साथ गाँव जाने की योजना बनाई थी। लेकिन अब
उसका जाना संभव नहीं। परिवार रॉबिन के द्वारा हमेशा किए जाने वाले अधूरे वायदों से
परेशान है, शायद इस वजह से वे अपने साथ उसका सूटकेस भी पैक नहीं करते। परिवार
अकेले ही उदास मन से गाँव चला जाता है।
तमाम
परेशानियों के बीच, क्या करें न करें की उधड़बुन में क्रिस्टोफर रॉबिन को बड़े
नाटकीय ढंग से एक दिन लंदन शहर में विनि द पूह मिलता है। पेड़ में बने दरवाजे से, वह
भी गाँव से सीधे लंदन में विनि द पूह का क्रिस्टोफर रॉबिन से मिलना, वह भी कुछ तीस
वर्षों के बाद कुछ ज्यादा ही नाटकीय हो गया है, जो जँचता नहीं है। मैं एक फंतासी
फिल्म देख रहा हूँ, यह बात कहकर मन को तसल्ली दिया था मैंने। इसके बाद रॉबिन की
जिंदगी कैसे बदलती है इसकी कहानी दिखाती है यह फिल्म। इस फिल्म को मार्क फोर्स्टर ने
निर्देशित किया है। यह एक लाइव-एक्शन/एनिमेटेड फिक्शन फिल्म है। निर्देशक ने काइट
रनर और क्वांटम ऑफ सोलेस जैसे फिल्में भी निर्देशित की हैं। क्रिस्टोफर रॉबिन
फिल्म को 2018 में रिलीज किया गया था।
सच बताऊँ तो इस फिल्म का शीर्षक ‘क्रिस्टोफर रॉबिन’ ही थोड़ा अटपटा लगा। आपके द्वारा रचित पात्रों में यह एक ऐसा पात्र रहा है जो ‘विनि द पूह’ उपन्यास के चर्चित होने के बावजूद बाल साहित्य की दुनिया में उतनी लोकप्रियता हासिल नहीं कर पाया है। भले ही आपने लंदन के चिड़ियाघर में विनि भालू और अपने बेटे रॉबिन को साथ में खेलता देख प्रेरणा ली थी और दोनों को ही अपनी कहानी का अहम पात्र बनाया था। जिससे ‘विनि द पूह’ का चरित्र ज्यादा लोकप्रिय और मनीखेज बनकर उभरा। शायद यही बातें थी जिनकी वजह से फिल्म का शीर्षक ‘क्रिस्टोफर रॉबिन’ कुछ ज्यादा जँचा नहीं। फिल्म की शुरुआत को मैंने इन्जॉय किया, लेकिन जैसे-जैसे यह आगे बढ़ती गई एक निराशा घेरती चली गई। इस फिल्म का विषय इस तरह का है जो शायद मुझ जैसे 38 वर्षीय युवा को पसंद आए। उम्र के इस पड़ाव पर ‘मिड लाइफ क्राइसिस’ से साम्यता बिठा पाने की जद्दोजहद की जद में मैं भी आ चुका हूँ। ऐसी मन:स्थिति कमोबेश हर मध्यमवर्गीय शहरी युवा की रहती है। जिसकी वजह से उनका शायद फिल्म से जुड़ाव बन पाए। लेकिन अगर यह डिज्नी की फिल्म है और बच्चों के लिए बनी है, तो कुछ एनिमेटेड कैरेक्टर्स को छोड़कर ऐसा कुछ भी नहीं जिससे बच्चे कनेक्ट करें। द्वितीय विश्वयुद्ध का दृश्य वीभत्स और डराने वाला लगता है। ऐसे दृश्य बच्चों की फिल्मों में नहीं रखे जाने चाहिए, ऐसा मेरा विचार है। आपका भी तो मानना रहा है कि युद्ध जहर की तरह होता है, वह कोई कड़वी या अरुचिकर दवा नहीं होता।
फिल्म
में जो कुछ भी अच्छा है वह आपके ओरिजिनल पात्रों के इर्द-गिर्द बुना गया है। क्रिस्टोफर
रॉबिन का वापस 100 एकड़ वूडस में जाना और सबसे मिलना, पुरानी बातों, डर, मान्यताओं
की चर्चा वाले दृश्य मोहक लगते हैं। कितना सुखद है, सबका वापस से मिल जाना। निःसंदेश
खुशियों की उम्र कम होती है। बढ़ती उम्र के साथ वो चली जाती है क्योंकि वयस्कता कोई
हँसी-खेल तो नहीं। क्रिस्टोफर रॉबिन की समस्याएं जटिल हैं, जिनका समाधान उसके ये दोस्त
तो नहीं कर सकते। उनके चेहरे की हताशा इसे आसानी से अभिव्यक्त कर देती है। इस दृश्य
को देखते हुए लगता है जैसे आपके उपन्यास के पात्रों को 100 एकड़ वुड्स से निकालकर
वास्तविकता के धरातल पर निर्ममता से पटक दिया गया है। लगता है जैसे कलाओं में वयस्कता, बचपन की स्मृतियों तक पर भी कब्जा करना चाहती है। आजकल लिखे जा रहे हिंदुस्तान
के हिन्दी बाल साहित्य में भी ऐसा ही कुछ घटित हो रहा है। फिल्म के अंत में
क्रिस्टोफर रॉबिन की बेटी मेडलीन का अचानक से बड़ों जैसा व्यवहार भी समझ से परे है।
तब
तक के लिए विदा। शेष अगले पत्र में ।
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