सबरंग खिलौने
(International Day of Play विशेष)
क्या
बच्चे सचमुच खेल नहीं रहे?
क्या उनके खेलने की जगहें सिकुड़ती जा रही हैं?
और
वे
आजकल कौन से खेल खेलना पसंद करते हैं?
ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो हमें सोचने पर मजबूर करते हैं। पहली नज़र में ऐसा लग सकता है कि खेलने की जगहें कम होने और बच्चों के लिए खेल के अवसर घटने की समस्या सिर्फ बड़े शहरों और महानगरों तक ही सीमित है। यहाँ बेतरतीब निर्माण के कारण बच्चों के खेलने की जगहें सिकुड़ती जा रही हैं, और एकल परिवारों की बढ़ती संख्या भी स्वाभाविक रूप से खेलने के मौकों को कम कर रही है। माता-पिता की व्यस्तता और बच्चों को हद तक प्रोग्राम्ड गतिविधियों में शामिल करने का बढ़ता चलन भी उनके अनौपचारिक खेल के समय को छीन रहा है। हालांकि, यह सिर्फ शहरी क्षेत्रों की कहानी नहीं है; ग्रामीण इलाकों का हाल भी कुछ ऐसा ही है। इसकी एक बड़ी वजह बच्चों के पारंपरिक खेलों की कड़ी का कमजोर पड़ना या टूट जाना है, जिससे ग्रामीण परिवेश में भी बच्चों के पास खेलने के उतने सहज अवसर नहीं बचे हैं, जितने पहले हुआ करते थे।
हमारे
देश में पारंपरिक खेलों की एक समृद्ध विरासत रही है, जो आज भी ग्रामीण और कुछ हद
तक शहरी इलाकों में बच्चों के बीच जीवित है। कुछ खास पारंपरिक खेल जो आज भी बच्चे
खेलते हुए दिख जाते हैं, वे हैं: गिल्ली-डंडा, कंचे, लंगड़ी टांग, खो-खो, कबड्डी,
स्टापू (एक पैर वाला खेल/हॉपस्कॉच), आँख-मिचौली (हाइड एंड सीक), लुका-छिपी, पिट्ठू
सतोलिया (सात पत्थर), और रस्साकशी। ये खेल केवल मनोरंजन का साधन नहीं
थे, बल्कि बच्चों की कल्पनाशीलता को बढ़ावा देते हुए साधारण चीजों को भी खेल के
मैदान और टूल्स में बदल देते थे। उदाहरण के लिए, पत्थरों और लकड़ियों से बनी
छोटी-मोटी चीज़ें, या बस एक खाली मैदान, बच्चों के लिए असीमित खेल के अवसर प्रदान
करते थे।
हालांकि,
इन खेलों के लिए अब पहले जैसी जगह, बच्चों का उनसे परिचय, इनकी ज़रूरत, पर्याप्त
समय और सबसे बढ़कर परंपरा का अभाव इन्हें कुछ खास क्षेत्रों तक ही सीमित कर रहा
है। ये खेल सिर्फ शारीरिक फुर्ती ही नहीं बढ़ाते थे, बल्कि बच्चों में टीम
वर्क, रणनीति बनाने, और नेतृत्व कौशल जैसे महत्वपूर्ण सामाजिक और
भावनात्मक गुण भी विकसित करते थे। इनमें बच्चों को आपस में बातचीत करने, नियमों पर
सहमत होने और एक-दूसरे का सम्मान करने का मौका मिलता था, जो उनके सर्वांगीण विकास
के लिए आवश्यक है।
यह
देखना दिलचस्प है कि बच्चे अपनी परिस्थितियों के बावजूद कैसे खेल के अवसर तलाश
लेते हैं। मैंने अपने आस-पास के बच्चों में यही देखा है कि वे जहाँ भी इकट्ठे हों
या अकेले हों, कोई न कोई खेल रच ही लेते हैं। उन्हें इस बात से कतई फर्क नहीं
पड़ता कि उन्हें कोई खेल आता भी है या नहीं, या समूह के लिए कोई कॉमन खेल क्या है।
एक से अधिक बच्चों के समूह में स्वयं ही कोई एक निर्देशक की भूमिका में आ जाता है,
खेल के नियम तय किए जाते हैं और खेल शुरू हो जाता है। यह खेल तब तक चलता रहता है
जब तक समय उन्हें खेलने की अनुमति देता है। यह बच्चों की स्वाभाविक प्रवृत्ति है
कि वे खेल के माध्यम से दुनिया को समझते और उससे जुड़ते हैं।
खेलने
और सीखने का संबंध शिक्षा में 'प्ले-वे' पद्धति पर चल रही गतिविधियों से स्पष्ट
होता है। आजकल पूर्व प्राथमिक शिक्षण में इस पर काफी जोर दिया जा रहा है, जैसा कि NCF
(राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा) और NIPUN (निपुण भारत मिशन) में भी
रेखांकित किया गया है। हालांकि यह कोई नई बात नहीं, इसे अनुभवों को संजोने और
उन्हें सीखने की प्रक्रियाओं में शामिल कर शिक्षा के लक्ष्यों को प्राप्त करने का
एक प्रभावी तरीका माना जा सकता है।
प्ले-वे
विधि एक बाल-केंद्रित शिक्षण दृष्टिकोण है जो खेल और खोज के माध्यम से
सीखने पर जोर देता है। यह इस बुनियादी सिद्धांत पर आधारित है कि बच्चे सबसे
अच्छा तब सीखते हैं जब वे सक्रिय रूप से शामिल होते हैं, आनंद ले रहे होते हैं,
और स्वाभाविक रूप से जिज्ञासु होते हैं। पारंपरिक रटने वाली पढ़ाई के बजाय,
यह विधि कल्पनाशील, शारीरिक, सामाजिक और संरचित खेलों को सीखने के मुख्य
माध्यम के रूप में शामिल करती है। इसके प्रमुख सिद्धांतों में बच्चों की रुचियों
के अनुसार बाल-केंद्रित गतिविधियाँ, सीखने के लिए खेल का उपयोग, खोज और अन्वेषण
को बढ़ावा देना, लचीलापन, अनुभवात्मक शिक्षा, और शिक्षक की एक मार्गदर्शक व
सहायक के रूप में भूमिका शामिल है।
पिछले
वर्ष अप्रैल महीने में मुझे उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के एक ब्लॉक की
कार्यशाला ‘क से कहानी’ में शामिल होने का अवसर मिला था। यह कार्यशाला कहानी कहने
के तरीकों पर आधारित थी। तीन दिनों तक विभिन्न भाषाओं (बोलियों) में खूब सारी
कहानियाँ अलग-अलग तरीकों से कही-सुनी गईं, जिनमें से एक तरीका था खेल आधारित
कहानी कहन। यानी कहानी कहने के दौरान खिलौनों पर आधारित खेलों को शामिल करना
या ऐसे खेल जिसमें कहानी शामिल होती हो या जो कहानियों पर ही आधारित होते हैं।
प्रतिभागियों
ने अपने अनुभवों में शामिल ऐसे ही खेल और खिलौनों के बारे में अपने विचार साझा
किए। हालांकि वे उस कार्यशाला के विचार से उपयुक्त तो थे, पर पर्याप्त नहीं थे।
अनुभवों को सुनते हुए मुझे बार-बार यह सवाल मन में आता रहा कि ग्रामीण क्षेत्रों
में ऐसा गैप क्यों आया है? बातचीत की शुरुआत में ऐसा अनुमान था कि शायद ऐसे
खेल-खिलौनों की एक विस्तृत श्रृंखला सुनने या अनुभव करने को मिलेगी, पर बातचीत
उतनी व्यापक नहीं हो पाई।
बिहार और झारखंड के जिन क्षेत्रों में मेरा बचपन गुज़रा है, वहाँ मिट्टी, पत्थर,
लकड़ियाँ, पौधे, खाली मकान, मैदान, झाड़ियाँ, पगडंडियाँ, तालाब आदि हमारे लिए
क्रीडा स्थल भी थे और प्रॉप्स भी। जिस समूह में हम खेलते थे, उनमें अलग-अलग आयु
वर्ग के बच्चे हुआ करते थे, और नए-नए खेलों का अनुभव ऐसे हम तक आया था। चूँकि यह
कार्यशाला अलग राज्य के ग्रामीण क्षेत्र में आयोजित हुई थी, तो अनुमान यही था कि
उन अनुभवों को समृद्ध किया जा सकेगा, जो कुछ हद तक ही हो पाया। हालांकि, समेकन के
दौरान मैंने प्रतिभागियों से अपने बचपन के दिनों, वर्तमान समय में गाँवों और आसपास
होने वाले बच्चों के खेलों के आधार पर अनुभव साझा करने के लिए कहा। लगभग डेढ़ घंटे
की बातचीत में कुल 30 के आसपास खेलों और खिलौनों की जानकारियाँ एकत्र हो पाईं, जो
किसी कार्यक्रम के लिए बहुत उत्साह जगाने वाला था।
कार्यशाला
से लौटने के बाद अपनी टीम के साथ मिलकर एक पिक्चर बुक की योजना बनी, जिसमें
उन अनुभवों को शामिल करना तय हुआ। एक साथ 30 खिलौनों को तो एक पिक्चर बुक में
शामिल नहीं किया जा सकता था, इसलिए टीम से विचार कर 10 खिलौनों पर आधारित एक किताब
का स्क्रीनप्ले मैंने लिखा। इसमें खिलौने के बनाने के तरीके और उस पर आधारित खेल
दोनों को शामिल किया गया। साथ ही 3-4 कवितनुमा पंक्तियाँ भी लिखीं ताकि किताब को
मजेदार बनाया जा सके। इस पूरी प्रक्रिया में शोध अविनाश वर्मा (जो उस समय उत्तर
प्रदेश के प्रोजेक्ट के लीड थे) का रहा। शुभम् लखेरा ने किताब की मांग को समझते
हुए चित्र बनाए हैं जो श्वेत-श्याम और रंगीन दोनों ही हैं।
यह
जानना महत्वपूर्ण है कि नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित 'सुंदर सलोने भारतीय
खिलौने' (सुदर्शन खन्ना) और एकलव्य द्वारा प्रकाशित 'कबाड़ से जुगाड़'
इस विषय पर प्रकाशित बेहतरीन किताबें हैं। इस तरह की और भी किताबें हमें लाइब्रेरी
में पढ़ने को मिलती रहती हैं। जरूरत इस बात की है कि उन्हें केवल लाइब्रेरी तक
सीमित न रखा जाए, बल्कि अपने अनुभवों में शामिल करते हुए, उन्हें बच्चों के साथ
रोचक अंदाज में साझा किया जाए। ऐसे ही कुछ खेलगीतों की किताबें हैं जैसे 'अक्कड़
बक्कड़' और 'गुमनाम खेलगीत – अंकुर एवं एकलव्य' जो इस प्रक्रिया को
मजेदार बनाने में पूरक की भूमिका निभा सकती हैं।
आज,
जब हम बच्चों के खेलने की घटती जगहों और बदलते खेल के तरीकों पर बात कर रहे हैं,
तो अंतर्राष्ट्रीय खेल दिवस (International Day of Play) की प्रासंगिकता और
भी बढ़ जाती है। हर साल 11 जून को मनाया जाने वाला यह दिवस, खेल के माध्यम
से बच्चों के अधिकारों को बढ़ावा देने, उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर
बनाने, और उनमें रचनात्मकता तथा सामाजिक कौशल विकसित करने के उद्देश्य से समर्पित
है। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा इस दिवस को घोषित करने का मुख्य लक्ष्य यह
सुनिश्चित करना है कि हर बच्चे को खेलने का अधिकार मिले, क्योंकि खेल केवल मनोरंजन
नहीं, बल्कि सीखने और बढ़ने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है। यह दिन हमें याद दिलाता
है कि हमें अपने बच्चों के लिए ऐसे सुरक्षित और प्रेरक वातावरण बनाने होंगे जहाँ
वे बेफिक्र होकर खेल सकें, अपनी क्षमताओं का पता लगा सकें और भविष्य के लिए तैयार
हो सकें। यह हम सभी की सामूहिक जिम्मेदारी है कि हम बच्चों के इस मौलिक अधिकार को
सुनिश्चित करें।
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