निर्मल का शहर और मॉल रोड की लाइब्रेरी

जिस शहर में जाता हूँ, वहाँ की पब्लिक लाइब्रेरी मेरी साथी बनती हैं। घंटों किताबें तलाशना, पढ़ना, नोट्स लेना फिर उन अनुभवों को दूसरों से साझा करना या लिखना। ये कुछ गतिविधियाँ अन्य जरूरी कामों के साथ मेरी दिनचर्या का हिस्सा बन जाती हैं। मैंने राजस्थान के अलग-अलग शहरों में 6 साल गुजारे हैं। वे 6 साल मेरे लिए पढ़ने और लिखने के लिहाज से सबसे उर्वर सालों में से रहे। वहाँ की लाइब्रेरिज से कुछ अलग सा रिश्ता जुड़ा । बाद के वर्षों में भी राजस्थान नियमित रूप से जाता रहा हूँ। हालाँकि ऐसे तालमेल अन्य राज्यों के शहरों के साथ अभी तक नहीं बिठा पाया। दिल्ली और उसके आसपास रहते हुए चार साल बीत गए।  पर अब तक  यहाँ किसी तरह के प्रयास नहीं कर पाया।

‘किताबें मेरी ‘दूसरी जिंदगी’ रही हैं। मेरी अपनी जिंदगी के समानांतर चलती हुई। किसी अच्छी कहानी या उपन्यास पढ़ने के बाद मुझे बाहर की दुनिया कुछ वैसी ही दिखाई देती थी जैसे बहुत बारिश होने के बाद बादल छँटते ही शिमला के पहाड़ दिखाई देते थे। बाद में मैंने पाया कि किताबें मन का शोक, दिल का डर या अभाव की हूक कम नहीं करती, सिर्फ सबकी आँख बचाकर चुपके से दुखते सिर के नीचे सिरहाना रख देती हैं।‘  

पुरानी किताबों से हमारा लगाव सिर्फ उनके भीतरी कथ्य से नहीं होता, उसके बाहरी आवरण, कवर पैकेट, पन्नों के खास किस्म के कागज़, उनके अक्षरों का प्रिन्ट टाईप और न जाने कितनी दूसरी चीजों से जुड़ा होता है। - (अपने आलेख ‘पुस्तक और मैं’ में निर्मल वर्मा)


लाइब्रेरी कोर्स के दौरान पढ़े गए इस आलेख को अब तक कई दफे पढ़ चुका हूँ । निर्मल वर्मा से विस्तृत परिचय (आठवीं कक्षा में पढ़े गए उनके आलेख चीड़ों पर चाँदनी के बाद) 2008 में पहली बार हुआ था, जब मैंने राँची से भुवनेश्वर की यात्रा के दौरान ‘वे दिन’ पढ़ा था। जिसे राँची रेलवे स्टेशन के बुक स्टाल से खरीदा था। चेकोस्लोवाकिया की बर्फ-भरी सड़कों पर अपने लगभग अपरिभाषित प्रेम के साथ घूमते हुए इस उपन्यास के पात्र मेरे लिए जब पन्नों पर उद्घाटित हुए पहली बार मुझ पाठक को एक टीसती हुई सी सांत्वना प्राप्त हुई थी। फिर अगले दो वर्षों तक उनके उपन्यास और कहानी संग्रहों मसलन रात का रिपोर्टर, अंतिम अरण्य, कौए और काला पानी, लाल टीन की छत, जलती झाड़ी आदि के साथ लंबी यात्रा की लगभग आदत सी हो गई।

निर्मल वर्मा का सांस्कृतिक और भौगोलिक अनुभव बिहार और अब झारखंड के परिवेश में पले-बढ़े मेरे जैसे व्यक्ति के अनुभव से भिन्न अवश्य था, परंतु कुछ बातें बेहद अनूठी थीं। जिनसे मैं उनके लेखन से गहरे तक जुड़ पाया। मसलन मेरे गाँव के बस स्टॉप पर एक गड़ही के किनारे गूलर का एक पेड़ है। बरसात शुरू होते ही पेड़ छोटे-छोटे गूलर के फलों से भर जाता है। जाड़े की शुरुआत तक हम कच्चे गूलर की सब्जी और पके गूलर खा चुके होते थे। जब कभी बस पकड़ने के लिए रोड तक जाता, गूलर के पेड़ के नीचे बैठता और देर तक पानी में गूलर टपकने की आवाज़ें सुनता रहता। यह दृश्य मेरी स्मृतियों में आज भी ताज़ा है। पहली बार इस अनुभवों को निर्मल वर्मा के आलेख ‘चीड़ों पर चाँदनी’ में पढ़ना हुआ था। पढ़कर लगा जैसे मेरे अपने अनुभव को किसी ने अपने लेखन में जगह दी है।

टापू पर पके गूलर गिरते हैं.... टप!....टप! पानी भागता है किसी अदृश्य निधि की खोज में। उर्मियाँ सतह पर उठती हैं, दौड़ती हैं, छोटे-छोटे बूंदों-सी झील के साँवले गालों पर झूलती हैं और फिर गुम हो जाती हैं।

रात की घनी नीरवता में सबकुछ धीमे-धीमे सिमट जाता है। लहरें शांत हो जाती हैं। आखिरी बस बाजार के कोने में ठहर जाती है। दूर टापू में गूलरों के गिरने का स्वर सोते-सोते भी सुनाई दे जाता है- टप.... टप.... टप!’ - (चीड़ों पर चाँदनी)

आजकल दिल्ली शहर के जिस दफ्तर में मैं काम करता हूँ, वहाँ की खिड़की से गूलर का पेड़ दिखाई देता है। छोटे-छोटे गूलर के फलों से लदराया हुआ। लेकिन मेरे दफ्तर में शायद ही कोई उनके बारे में जानता है, न ही कभी बात करता है। लोग पेड़ों तक को नहीं जानते आजकल।     

इस साल पहली बार शिमला जाने का संयोग बना था। मेरे लिए निर्मल वर्मा का शहर। उनके द्वारा वर्णित शहर की तमाम जगहें, बुक स्टोर और लाइब्रेरिज, जो वहाँ घूमते हुए मन मस्तिष्क में आवाजाही करते रहे थे। शहर में घूमते हुए लाल और हरी टीन की छतों को देखते हुए बार-बार निर्मल के वही प्रश्न खुद से दुहराता रहा था – इन पहाड़ों के पीछे न जाने क्या होगा?

शिमला में तीन शामें बिताई थीं। पहले दिन देर शाम को मॉल रोड पर टहलते हुए क्राइस्ट चर्च के पास खड़ी एक पुरानी सी बिल्डिंग पर एक नीला बोर्ड दिखाई दिया – हिमाचल प्रदेश पब्लिक लाइब्रेरी का। अतिरिक्त जानकारी के रूप में बोर्ड पर ‘चिल्ड्रन एण्ड मेन सेक्शन’ लिखा था। सिरोही (राजस्थान) की पब्लिक लाइब्रेरी में चिल्ड्रन कॉर्नर 2018 में पहली बार देखा था। लेकिन यह बात वहाँ किसी भी बोर्ड पर लिखी हुई नहीं दिखी थी। मेरे अनुभव में पहली बार कोई पब्लिक लाइब्रेरी दिखी थी जहाँ चिल्ड्रन सेक्शन को इतनी तरजीह दी गई थी। रिज मैदान में बिल्डिंग के पास ही एक शिलापट्ट पर लाइब्रेरी का इतिहास लिखा था । शिलापट्ट पर लगी जानकारी के अनुसार यह भवन जिसमें लाइब्रेरी संचालित होती है वह 1860 में निर्मित हुई थी। शिमला के एक मत्वपूर्ण स्टेशन बनने से पूर्व तक यह शिमला वॉलन्टियर कॉर्पस और हेल्थ डिपार्टमेंट के लिए इस्तेमाल हुआ था। बाद में यह भवन म्युनिसिपल लाइब्रेरी और अब स्टेट लाइब्रेरी संचालित हैं। तकरीबन डेढ़ सौ साल पुरानी इमारत। मन में लाइब्रेरी के संग्रह को देखने की सहज जिज्ञासा पैदा हो गई थी। अंग्रेजी और अन्य भाषाओं के क्लासिक, उनके पहले लाइब्रेरी एडीशन, कवर डिजाइन आदि जैसी बातें कुतूहल पैदा करने लगी थीं। शायद ये सब कुछ इस लाइब्रेरी के संग्रह में देखने को मिल जाएगा। इनका रख-रखाव कैसे किया जाता है, क्या व्यवस्था होगी आदि की जानकारी भी मिल सकेगी। पूछने पर पता चल कि कल 11 बजे यह लाइब्रेरी खुलेगी। लाल टीन की छत, नियों टयूडोर स्टाइल का आर्किटेक्चर और उस पर की गई सुंदर सी प्रकाश व्यवस्था, मानों नियोन प्रकाश और गहरे अंधेरे का एक रहस्यमयी आवरण बन रहा हो। लाइब्रेरी की बिल्डिंग सपनीली और बहुत खूबसूरत लग रही थी। निर्मल वर्मा के शहर में खड़ी इस लाइब्रेरी के प्रति सहज आकर्षण बढ़ गया था।


अगले दिन लाइब्रेरी के लिए समय निकालते हुए सुबह ग्यारह बजे वहाँ पहुंचा। मॉल रोड पर गहमागहमी शुरू हो गई थी। रिज मैदान में काले पत्थर की  गाँधी जी की भव्य मूर्ति  थी। मूर्ति के बाएं हाथ में एक किताब  थी। मित्रों से इस पर ही चर्चा निकल पड़ी। किसी ने कहा कि संविधान है। लेकिन वो बात उतनी उपयुक्त जान नहीं पड़ी क्योंकि गाँधी जी संविधान बनने तक हमारे बीच जीवित नहीं थे। किसी ने कहा शिमला समझौते का मसौदा हो सकता है। ये बात थोड़ी तर्कसंगत जान पड़ी थी। क्योंकि मूर्ति के बाजू में लगे शिलापट्ट पर गाँधी जी के शिमला आने का विवरण खुदा हुआ था। जिसके अनुसार 1940 से 1946 के बीच चार बार महात्मा गाँधी शिमला अलग अलग महत्वपूर्ण कार्यों के लिए आए थे। इन बातों के बीच एक बात यह भी थी कि पब्लिक लाइब्रेरी के सामने यह मूर्ति लगी है तो हो सकता है कि यह सांकेतिक रूप से लाइब्रेरी को दिखा रही हो। जहाँ हम ठहरे थे उस रास्ते में एक और स्टेट लाइब्रेरी की बिल्डिंग दिखाई देती है। मानों जैसे वह इमारत इटालियन लेखक अंबरतों इको के उपन्यास ‘नेम ऑफ द रोज’ में वर्णित ईसाई मठ की एक भव्य मीनार हो।  इमारत ब्रिटिश काल की ही लगती है। जिसकी दीवार पर एक बोर्ड चस्पा है – हिमाचल प्रदेश राज्य पुस्तकालय, शिमला, गाँधी भवन अनुभाग। हो सकता है इन पुस्तकालयों और गाँधी जी के बीच कोई और तार जुड़ते हों जिस हम बातचीत के दौरान नहीं पकड़ पाए थे। 

बहरहाल मैं रिज मैदान की लाइब्रेरी के पीछे वाले गेट से अंदर प्रवेश कर रहा था। साफ सुथरी इमारत, बरामदे में ठीक सामने की दीवार पर एक नियमावली का बोर्ड लगा था जिसपर समय, सदस्यता आदि के विवरण लगे थे। बोर्ड के नीच बैठी दो किशोरियाँ शायद ब्रेकफ़ास्ट कर रही थीं। एक व्यक्ति ने, जो शायद लाइब्रेरी का कर्मचारी था ने मुझे आने का कारण पूछा। मैंने अपनी जिज्ञासा बताई। साथ ही अनुरोध किया लाइब्रेरियन या फिर लाइब्रेरी के इंचार्ज से मुलाकात करा दें। सीढ़ियों से चढ़ते हुए मैं लाइब्रेरी के रीडिंग रूम में पहुंचा जहाँ दो दर्जन युवा  लड़के- लड़कियाँ किताबें पढ़ रहे थे। जिज्ञासावश मैंने रीडिंग टेबल पर रखी किताबों पर एक नजर डाली। उनमें प्रतियोगी परीक्षाओं की पुस्तिकाएं ज्यादा दिखीं। कुछ नोट्स बनाते दिखे।

लाइब्रेरियन अपने चैंबर में बैठी थीं। मेरे आने की सूचना उन्हें हो गई थी। क्योंकि उन्होंने अपने सामने लगे सीसीटीवी स्क्रीन पर मुझे सीढ़ियाँ चढ़ते देखा था । संक्षिप्त से परिचय के बाद हमारी बातचीत शुरू हुई। वे एक राजकीय स्कूल की शिक्षिका थीं जो प्रतिनियुक्ति पर यहाँ लाइब्रेरियन थीं। मैंने लाइब्रेरी की  किताबों के प्रति अपनी रुचि, अपने बाल पुस्तकालय से जुड़ाव को उनके समक्ष रखा। वे अपनी बातें रख तो रही थीं पर यह भी मैं महसूस कर पा रहा था कि वे इस  बातचीत से  थोड़ी असहज थीं। फिर भी उन्होंने जो भी कहा उनसे बहुत सी चीजें स्पष्ट थीं। उन्होंने कहा कि शिमला में ज्यादा टुरिस्ट आते हैं। अगर सभी को लाइब्रेरी के अंदर आने दिया जाए तो यहाँ पढ़ने वाले लोगों को दिक्कतें होती हैं। इसलिए वे इसे बढ़ावा नहीं देती हैं। लोग पानी पीने या टॉयलेट के इस्तेमाल के बहाने से इस बिल्डिंग में आना चाहते हैं। पुरानी किताबों के संग्रह पर उन्होंने कहा कि इस लाइब्रेरी में अब कुछ भी नहीं बचा, जो कुछ है वो अंबेडकर लाइब्रेरी में शिफ्ट कर दिया गया है। अगर आपकी जिज्ञासा उन किताबों में है तो आपको वहाँ देखना चाहिए। तकरीबन बीस मिनट की बातचीत के दौरान वे बाल पुस्तकालय या चिल्ड्रन सेक्शन के विषय में कुछ भी  संतोषजनक जानकारी नहीं दे पाईं। उनके चैंबर से निकलते हुए मेरे मन में उन तमाम पब्लिक लाइब्रेरिज की छवियाँ थीं जो अब केवल प्रतियोगी परीक्षाओं के रीडिंग रूम में तब्दील होती जा रही हैं। यह कैसी राजकीय  व्यवस्थाएँ हैं ( देश भर के लगभग सभी राज्यों में,) जहाँ बोर्ड पर बाल साहित्य सेक्शन बड़े अक्षरों में लिखा हो किन्तु ऐसी पुस्तकालयों की  जिम्मेदारी के लिए हम  उपयुक्त पात्र न ढूंढ पाते हैं न  तैयार कर पाते हैं ।   


लाइब्रेरी से निकलकर मैंने ऊंचाई से खड़े होकर एक बार मॉल रोड का मुआयना किया। वहाँ से नजरें दूर तक जाती हैं। दिन के उजाले में कई आदमकद मूर्तियाँ थीं। जिनमें ज्यादातर राजनेताओं की थी। लेकिन किसी लेखक या कलाकार की मूर्ति वहाँ  लगी हो, ऐसा कुछ नहीं दिखा। मैं लाइब्रेरी के पीछे बुक कैफे तक चला आया कि शायद वहाँ कुछ किताबें मिल जाएँ।  वैसे बुक कैफे भी किताबों के मामले में समृद्ध नहीं लगा। परंतु वहाँ पर्याप्त जगह हैं जहाँ बैठकर किताबें पढ़ी जा सकती हैं और उनपर चर्चा की जा सकती है। 2022 में हिमाचल प्रदेश के साहित्यकारों ने निर्मल वर्मा स्मृति यात्रा का आयोजन किया था। जो इसी बुक कैफे भज्जी हॉउस गयी जहाँ पर निर्मल वर्मा का जन्म हुआ था

अगले दिन मॉल रोड से सटे गेटी थियेटर में जाना हुआ। गेटी थियेटर में हिमाचल के स्थानीय साहित्यकारों के साहित्य को प्रदर्शनी के लिए रखा गया था। जहाँ से मैंने अपने पसंदीदा लेखकों की किताबों खरीदीं। हमारी पीढ़ी के युवा लेखकों में प्रियंका वैद्य और मनोज कुमार शिव की किताबों का दिख जाना एक सुखद संयोग था। वहाँ  हिन्दी साहित्य के कई पत्रिकाओं के ताजे अंक भी उस लाइब्रेरी में पढ़ने के लिए उपलब्ध थे।  गेटी थियेटर कला और संस्कृति के क्षेत्र में अग्रणी संस्था है। रुडयार्ड किपलिंग ने अभिनेता के रूप में अपना अपना पहला परफ़ोर्मेंस यहीं  दिया था।  

 शिमला खूबसूरत शहर है । यहाँ बच्चों  की किताबों का एक खूबसूरत कोना  भी होता तो बेशक क्या खूबसूरत बात होती....  नहीं?

टिप्पणियाँ

  1. आपकी ये पोस्‍ट पढ़कर सुखद लगा। निर्मल वर्मा की वे दिन मेरी पसन्‍दीदा किताबों में से एक है। उसके कई हिस्‍सों पर मैंने निशान लगाकर रखें हैं। गाहे-बगाहे उनमें पढ़ता हूँ और दोस्‍तों को पढ़वाता हूँ। कई बार उनके इस उपन्‍यास का जिक्र लोगों से किया है।

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