बीत रहे कथा कहानियों के दिन (2)

 (गतांक से आगे ...)

 


‘आनंद हमारे जीवन का स्वाभाविक लक्षण है. शिक्षा तभी वास्तविक शिक्षा है जब वह इस आनंद अनुभूति का माध्यम बन सके. जहाँ कहीं भी शिक्षण की क्रिया आनंद विहीन रहेगी
, वहाँ आज नहीं तो कल, एक वर्ष में नहीं तो दो वर्षों के बाद, इस दौर में नहीं तो अगले दौर में शिक्षण कार्य निष्फल हो जाएगा!’

-                                                                                                                                                                           प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री गिजुभाई बधेका के शब्द

बहुत तेजी से बदलते सामाजिक परिदृश्य और कृत्रिम हो रहे समाज में, जहाँ कहीं भी  स्वाभाविक आनंद का विरोध होता है, वहाँ मनुष्य को वैकल्पिक साधनों द्वारा आनंद तलाशना पड़ता है. ‘कहानी इसी प्रकार का एक साधन है. जिसने न जाने कितनी सदियों से लोगों का ज्ञानवर्द्धन के साथ मनोरंजन भी किया है. हममें से शायद ही कोई ऐसा होगा जिसके बचपन में कहानियों की रातें नहीं रही होंगी. भारतीय संस्कृति में तो किस्से-कहानियाँ सुनने और सुनाने की कला रची-बसी है. जाने कितनी ही कहानियाँ एक पीढ़ी ने, दूसरी पीढ़ी को सुनाई हैं. घर में हो या  बाहर, सुबह हो या शाम , कामों के बीच कहानियों, किस्सों, गप्पों और बतियाने का वक्त लोग निकाल ही लेते थे. उन अनगिनत कहानियों को किसने लिखा, किसने गढ़ा इसका अनुमान भी नहीं लग पाता. लेकिन जब-जब वे कहानियाँ प्रस्फुटित होतीं, वर्तमान के नए चोगे में ही होतीं... और दुनिया भर में बंटती चली जातीं. न जाने यह क्रम कब से चला आ रहा है.  वर्तमान कामकाजी समय में इसमें शिथिलता जरूर आई है, पर आज भी कथा-कहानियों की चर्चा होते ही नानी-दादी की कहानियों के दिन याद आज जाते हैं.

उदारीकरण के बाद तेजी से बढ़े शहरीकरण और कस्बाई संस्कृति ने न्यूक्लियर फैमिलीज़ की अवधारणा को विकसित किया है. बच्चों का समूह दादी-नानी, बड़े-बुजुर्गों की कहानियों से महरूम होने लगा है. उसपर से कार्टून चैनल्स, वेब सीरिज और वीडियो गेम्स ने मोहल्ले से गाहे-बगाहे जमा होने वाली बात मंडलियों का भी लगभग सफाया कर दिया. कहानी कहना और उसपर विचार साझा करने की कोशिशों को झटका लगा, पठन-पाठन में आए तकनीक के प्रयोग और विकास के नए आयामों ने काफी हद तक कहानी कहने-सुनने की परंपरा को नुकसान पहुंचाया है. भरे दिन या दुपहरियों में विकसित हो रही आजकल ‘स्टोरी टेलिंग’ की नई अवधारणा जो विशेष रूप से महानगरों में ही विकसित हो रही है, उसमें सुकून कहाँ हैं. बाकी जगहों में समयाभाव और   तकनीक बाहुल्यता की वजह से कहानी सुनाना एक पुरानी विधा प्रतीत होने लगी है. नतीजतन लोगों का इसमें आकर्षण और रुझान भी कम हुआ है. इससे कहानी सुनाने वाले की दक्षता भी सवालों के घेरे में आ जाती है, क्योंकि अब कहानियाँ बच्चों को आकर्षित नहीं करती.

कहानी सुनाना सृजन कर्म भी है और सम्प्रेषण कर्म भी. यह एक कला है जिसकी साधना एक सम्प्रेषण कर्मी के रूप में करनी पड़ती है. साहित्य की सबसे कठिन विधा कहानी ही है. इस विधा को जो सफलता पूर्वक साध ले, वह विजेता होता है. कहानी सुनाना श्रम साध्य है... वह भी बच्चों के लिए, तब तो और जब सुनने वाला हठ पर आ जाए. भविष्य की तैयारी के लिए दादी-नानी की कहानियाँ बड़ी भूमिका अदा करती थीं. बहुत सारे लोग मेरी बातों से इत्तेफ़ाक रखेंगे. उनकी बहुत सारी कहानियों के विकल्पों में से कोई एक कहानी हम चुनते थे. वे कहानियाँ दो दिन, तीन दिन या फिर उससे ज्यादा दिनों तक चलती रहती थीं. बिना थके वे कहती जातीं और हम रजाइयों में घुसे सुना करते और सो जाते. यह हर दिन का नियम बन जाता था. कहानी सोचना आसान लगता है. पर उसे अंत देना सबके वश की बात नहीं है. पर वे इसे बखूबी अंजाम देती थीं. राजा-रानी, शीत-बसंत, तोता-मैना, सिंदबाद, कौवा हकनी जैसी कहानियाँ आज भी स्मृतियों में ताज़ा हैं, आज मुझे यह बात महसूस होती है कि मुझमें जो कुछ भी क्रियात्मकता का समावेश हुआ है, वह उन्हीं कहानियों की वजह से है. यह ऋण हमें महसूस करना चाहिए कि जो कहानियाँ हमने अपने बुजुर्गों से सुनीं थीं, वे हमारे बच्चों तक नहीं पहुँच पा रही हैं. आज की दादी देख रही हैं कि वे भले ही अपनी पोती को कहानी न सुना पाई हों पर वह अब सारी दुनिया को अपनी ‘कहानी’ सुना ही रही है. नई पीढ़ी तो ‘बिग बॉस’ देखकर ही सो (खो) रही है.

कहानी कहना एक सम्प्रेषण की कला है. यह कला बहुत दुरूह है और यह नियमित अभ्यास से ही विकसित होती है. पहले के ज़माने में कहानियाँ सुनते-सुनाते यह कला स्वतः ही आ जाती थी,

लेकिन आज तो अबोला ही पसरा रहता है. इस अबोलेपन के कारण ही तो दूरियाँ बढ़ती ही जा रही हैं. कोई अपने मन की बात भी नहीं कह पाता. इसलिए रिश्ते सामान्य नहीं रह पाते. नानी और दादी की कहानियों में निहित निज़ता असामान्य को भी सहज और सरल बना कर अपने प्रवाह में बहा ले जाती है. बच्चे की कल्पना को विस्तार देकर नए संसार के द्वार खोल देती है. वह नेह और निज़ता अब कहाँ? आजकल बच्चों को कौन कहानी सुनाता है? बच्चे या तो मोबाईल से चिपके रहते हैं या टी०वी० देखते हैं. दादा-दादी, नाना-नानी उनके साथ रहते भी नहीं. कुछ दशक पहले एक टी०वी० सीरियल आया करता था – ‘दादा-दादी की कहानी’. अभिनेता अशोक कुमार और अभिनेत्री लीला मिश्र कहानियाँ सुनाते थे. अब उस तरह के सीरियल भी नहीं आते. सचमुच इस दौर में नानी और दादी की कहानियाँ न जाने कहाँ खो गई हैं. बचपन में जो सजीव होकर आँखों में तैरने लगती थीं और कई-कई दिनों तक मन पर अपना प्रभाव बनाए रखती थीं. इस कहानियों का बच्चों की अपनी दुनिया के निर्माण में भी बड़ा योगदान होता था.

आज के समय में कहानी कहने की प्रथा जरूर कम हो रही है, लेकिन बच्चों की पाठ्यचर्या में आए बदलाव एक उम्मीद लेकर आए हैं. वर्तमान में बच्चों के विद्यालय कथा-वाचन को पुनर्स्थापित करने का माध्यम हो सकते हैं. शिक्षक इस विधा को अगर आत्मसात करें और उसकी तैयारी करें तो बच्चों की रूचि कहानी की तरफ भी बढ़ेगी. कहानी के द्वारा कई-कई विषयों को पढ़ाने की विधि को व्यव्हार में लाया जा सकता है. कहानी कहने की विधा को बच्चों के लिए रुचिकर बनाकर विषय शिक्षण की शुरुआत भी की जा सकती है. प्रसिद्द स्वीडिश लेखिका यूया विसलेंडर अपने एक साक्षात्कार में कहती हैं – ‘बच्चों की अपनी शारीरिक भाषा होती है. वह बहुत कुछ कह रही होती है. उसे समझना होता है. बच्चे अपने तरीके से दुनिया को समझते हैं और हम अपने तरीके से. हमें यह प्रयास करना होता है कि इस खाई को कैसे पाटा जाए और बच्चों की सोच को एक मुकाम तक कैसे पहुंचाया जाए.

संभवतः अच्छी कहानियों और शिक्षण में उनकी परिकल्पना, शिक्षकों की मदद कर सकेंगी,  क्योंकि अच्छी कहानी वह है जिसमें बच्चों के लिए आगे सोचने व कल्पना करने की संभावनाएं हों. इसलिए यह जरूरी है कि कहानी जीवित रहे और कहानी कहने की प्रथा भी. सचमुच कहानी कहने का अपना संसार है और इनसे जुड़ी अपनी मधुर स्मृतियाँ भी हैं.               




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