बीत रहे कथा कहानियों के दिन...

पिछले दिनों हिन्दी बाल साहित्य के एक लेखक से ‘कहानी सुनने-सुनाने’ की प्रक्रिया पर चर्चा हो रही थी। उनका कहना था कि किसी अभिभावक/माता-पिता या शिक्षक जो बच्चों के साथ उनके सीखने पर काम करते हैं, उन्हें कम से कम 15 से 20 कहानियाँ और 25 से 30 कविताएँ याद होनी ही चाहिए। बातचीत के दौरान मैं गौर से उनके चेहरे के बदलते भावों को पढ़ने की कोशिश करता रहा। जो ‘कहानी सुनाने’ की संस्कृति के माहौल को लेकर चिंतित लग रहे थे।

यह चिंता कोई अकारण नहीं है। हमें इस बात को स्वीकार लेना चाहिए कि कहानी या कविताओं की जिन संख्याओं का जिक्र उन्होंने किया, हममें से अधिकांश लोगों के पास उसकी आधी संख्या में सुनाने लायक कहानियाँ या कविताएँ नहीं है। जिनके पास हैं तो  उनके पास उन्हें सुनाने का आत्मविश्वास या अभ्यास नहीं है।

कहानी सुनने की बात चली है तो ऑनलाइन माध्यमों पर विभिन्न फोर्मेट्स में उपलब्ध कहानियों का जिक्र यहाँ जरूरी हो जाता है। इंटरनेट के बढ़ते प्रभाव के बावजूद सुनने लायक कहानियों के प्लेटफ़ॉर्म सीमित ही हैं। जो हैं भी उन तक ज्यादातर श्रोताओं की पहुँच नहीं है। अगर आपकी जानकारी में ऐसे पॉडकास्ट या चैनल्स हैं भी तो ज्यादातर मित्र यह कहते सुनाई देते हैं कि ऑडियो सुनते हुए ध्यान केन्द्रित कर पाना संभव नहीं होता। इसलिए आम जन में ऑडियो पॉडकास्ट की तुलना में रील्स देखने का कल्चर ज्यादा तेज गति प्रसारित होता हुआ दिखता है।

वर्तमान व्यवस्था में आजीविका के माध्यम ही किसी भी संस्कृति की दिशा या दशा तय करते हैं। फलतः न्यूक्लियर फैमिली ही आज की संस्कृति है। जाहिर है आपस में संवाद के मौके कम हैं। जो संवाद होते भी हैं वो सीमित विषयों को लेकर। जिस परिवार में ज्यादा लोग होते हैं वहां संवाद के मौके भी ज्यादा मिलते हैं। संयुक्त परिवारों में दादी-पोती का संवाद कहानियों के माध्यम से ही शुरू होता था। जो आगे चलकर विविधविषयी हो जाया करता था। आज की तरह संवादहीनता की स्थिति नहीं  थी।


बचपन के जितने भी किस्से-कहानियाँ मुझे याद आती हैं, उनमें से ज्यादातर मुझे मेरी नानी-दादी ने नहीं, बल्कि मेरी माँ ने सुनाये हैं। कभी गर्मी की भरी दुपहरी में घर से बाहर धूप में निकलने से रोकने की खातिर, तो कभी रात को पापा की अनुपस्थिति में हम सब का अकेलापन दूर करने के लिए। ये वो समय था जब उदारीकरण भारत की अर्थव्यवस्था के दरवाजे पर दस्तक दे रहा था। मेरे बड़े होने तक वो कहानियाँ मुझे याद रहीं। बाद में पता चला वो हमारे प्रदेश की चुनिन्दा लोक कथाएं हैं। यह उन दिनों की बात है जब दूरदर्शन की श्वेत-श्याम दुनिया हमारे आसपास थी। जिसमें एक तरफ रामायण और महाभारत के नाम पर गली-मोहल्ले और चौराहों पर उमड़ने वाली भारी भीड़ थी, तो दूसरी तरफ बुधवार और शुक्रवार की शाम सजने वाली चित्रहार की महफ़िलें जिसका भाग हम बच्चे भी चाहे-अनचाहे बन जाते थे। उस समय मेरी उम्र तकरीबन पाँच से आठ साल ही रही होगी। मालगुडी डेज़, करमचंद जैसे कुछ गिने-चुने कार्यक्रम दूरदर्शन पर बच्चों के देखने लायक ही थे। ये वो समय था जब हमें आकाशवाणी पटना द्वारा बुधवार शाम को प्रसारित होने वाली बाल मंडली में सुनाई जाने वाली कहानियों का बेसब्री से इंतजार रहता था। कुछ कहानियाँ बी.बी.सी. के कार्यक्रम ‘बाल जगत’ में रविवार को राजनारायण बिसारिया की आवाज़ में सुबह-सुबह सुनने को मिल जाती थी, जिसमें कभी परवेज़ आलम उनकी मदद करते थे तो कभी अचला शर्मा। यह कार्यक्रम कुछ वर्षों बाद बंद कर दिया गया। ईदगाह, टोबाटेक सिंह, एनिमल फ़ार्म का रूपांतरण बाड़ा जानवरों आदि कहानियाँ या रेडियो नाटक सुनने को मिले थे।

बाद में रेडियो जापान की हिंदी सेवा ने सुनो कहानी के नाम से एक कार्यक्रम शुरू किया था, जिसमें जापानी लोक कथाएँ प्रसारित होती थीं। तब तक मैं थोड़ा-थोड़ा लिखने लगा था। एक पुरानी सी डायरी में उन सुनी कहानियों को अपनी भाषा में दर्ज भी करने लगा था। हमारे स्कूल में प्रत्येक शुक्रवार को लंच के बाद की लगातार दो कक्षाएं सम्मिलित रूप से पहली और दूसरी कक्षा के लिए हुआ करती थीं। जिसमें मुझे कहानियाँ सुनाने का मौका मिलता था। तब मैं पहली कक्षा में था। यानी अपने सहपाठियों के साथ-साथ आगे की कक्षा के बच्चों को भी कहानी सुनाना। इस पूरी प्रक्रिया को याद करता हूँ तो लगता है कि इसने मुझे आत्मविश्वास दिया था। घर में मेरी माँ और बड़ी बहन जो भी कहानियाँ मुझे सुनाती, मैं उन्हीं कहानियों को कक्षा में सुनाता था।

उस समय बाल पत्रिकाओं की भी अच्छी खासी लोकप्रियता थी। तब तक पराग बंद हो चुकी थी। लेकिन चम्पक, नंदन और बालहंस जैसी पत्रिकाओं से जुड़ने का मौका मिला था। जिनकी कहानियाँ लंच या खाली पीरियड में सहपाठियों के बीच, शाम को खेल के मैदान में मोहल्ले के दोस्तों के साथ बड़े मजे से और भावपूर्ण तरीके के साथ पढ़ी या सुनाई जाती थी। उनपर अच्छी चर्चा भी होती थी। आज के शहरों के पास अब न तो खेलने की जगहें हैं ना उस बहाने इक्कट्ठा होने वाले दोस्तों के साथ कहानी सुनाने और चर्चा के मौके। 

एक वह समय था जब हम पत्रिकाओं में छपी कहानियों की एक-एक पंक्ति बड़े ध्यान और मेहनत से पढ़ते थे। दोस्तों को सुनाते थे। आज के समय की तमाम बाल पत्रिकाएँ बदहाली के दौर से गुजर रही हैं। नंदन, बालहंस, चंदामामा आदि पत्रिकाओं में नियमित रूप से छपने वाली चित्रकथाएं भी हमें बहुत आकर्षित करती थीं और खासी लोकप्रिय थीं। पत्रिकाओं में दो या तीन रंगों से सजी कहानियाँ ही होती थीं। उनका प्रभाव आज तकनीकी रूप से विकसित किसी बहुरंगी चित्र पुस्तक से कम न था। बच्चे चित्रों में बने पात्रों के हाव-भाव तक की नक़ल किया करते थे। बालहंस पत्रिका ने तो इसी को लोकप्रियता का आधार बना नियमित रूप से मई-जून महीने में चित्रकथा-विशेषांक निकालने शुरू कर दिए थे जो लोक-कथाओं और क्लासिक साहित्य पर आधारित होता था। एक तरह से ये अपनी भाषा की ‘मास किताबें (पत्रिकाएँ)’ थीं। भारतीय भाषाओँ की शायद ही कोई किताब हाल के वर्षों में ‘मास बुक हो पाई है। इन चित्रकथाओं का प्रभाव इतना गहरा रहा कि जल्दी ही मल्टीकलर कॉमिक्स ने हमें अपनी गिरफ्त में ले लिया। अब नागराज, सुपर कमांडो धुर्व, डोगा, चाचा चौधरी से मेल जोल ज्यादा बढ़ने लगा था। पाठक और कहानी सुनने-सुनाने वाला समूह नियमित हो चला था। हर सेट की कॉमिक्स का हमें बेसब्री से इंतजार रहता था। स्कूल में लंच का समय कहानी सुनने को समर्पित था। फटाफट लंचबॉक्स खाली करके सभी एक जगह जुटते। नई कॉमिक्स की कहानी कोई सहपाठी लय और एक्शन के साथ सुनाया करता। जो उस समय के लिए विस्मय का का कारण हुआ करता था। दर्जन भर से ज्यादा लोग उन्हें घेरकर चुपचाप कहानी सुना करते, कहानी कहने का दौर इस तरह हमारे साथ नियमित रहा।

 

(क्रमशः – अगले ब्लॉग में)


नवनीत नीरव 

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