किताबों के मेले में बच्चा
मार्च महीने के पहले हफ्ते में विश्व पुस्तक मेले का समापन हो गया। एक पाठक के रूप में किताबों के इस तरह के समारोह मेरे अनुभवों में कुछ न कुछ जोड़ जाते हैं। बाल साहित्य के क्षेत्र में काम करते हुए दशक भर बीत गए। इसलिए पुस्तक मेलों में मेरा समय ज्यादातर चिल्ड्रन पैवेलियन या भारतीय भाषाओं में बाल साहित्य के प्रकाशकों के स्टाल पर किताबें देखते बीता। किताबों के साथ-साथ उन चेहरों पर भी मेरी नज़र होती है जो उन स्टाल तक चले आते हैं। अपने माता पिता, अभिभावक या बड़े भाई बहनों के साथ। दस -बारह साल तक के बच्चों की स्थिति यही होती है। इससे बड़ी उम्र के बच्चे अकेले भी किताबें ब्राउज करते दिखते हैं।
मेले में एक शाम सात साल
की एक बच्ची अपने पिता के साथ एक नाम प्रकाशक के स्टाल पर किताबें खरीदने आई। कुछ देर तक वह इधर-उधर कतार से जमाई गई किताबों
को देखती रही। जिनतक उसकी पहुँच थी, उनमें से कुछ किताबों को
वह उठाती, उसके पन्ने उलटती-पलटती। फिर
उन्हें वापस उसी वहीँ रख देती। मैंने महसूस किया कि बाल साहित्य प्रकाशनों के
स्टाल पर डिस्प्ले की गई किताबों का दो तिहाई हिस्सा छोटी उम्र के बच्चों की पहुँच
से बाहर ही रहा। शायद हर बार ऐसा होता रहा हो, लेकिन मेरा ध्यान इस बात पर इस बार
ही गया। खैर, उस बच्ची की बात पर लौटते हैं। कुछ आठ-दस मिनटों में उसे कोई किताब
पसंद आई थी। रंगीन चित्रों वाली किताब, जिसमें कोई कहानी
होगी। ऐसा मैंने अनुमान लगाया। उसके पिता भी पास में खड़े अपनी रूचि की किताबें
टटोलने में लगे थे। बच्ची ने उन्हें किताब दिखाकर कहा – ‘ये फ्रॉग वाली बुक चाहिए
मुझे’। पिता ने एक नजर उस किताब पर डाली और कहा – ‘इस किताब का क्या करोगी? ये ठीक
नहीं तुम्हारे लिए। मैं दूसरी ले रहा हूँ’। पिता के हाथ में कोई किताब थी जो
संभवतः उनकी ही पसंद की रही होगी, बच्ची के लिए। पिता ने बच्ची
की चुनी किताब को वापस रख दिया। बच्ची ने हल्का विरोध किया। लेकिन पिता उसकी ऊँगली
थामे बिल काउंटर की ओर चले गए।
यह हाल में देखी
गई एक घटना थी। लेकिन इस पर गौर करेंगे तो पायेंगे कि कमोबेश यह हमारी संस्कृति है
जिसमें बच्चों से जुड़े सारे फैसले उनके अभिभावक, और माता पिता करते हैं। भले ही वह
अपनी रूचि की किताबें लेने या पढ़ने का मसला क्यों न हो। ऐसा भी नहीं है कि यह
परिस्थिति कोई नई निर्मिती है। अपने बचपन को याद करें तो हम सभी के ऐसे अनुभव रहे
होंगे जिसमें किताबें खरीदी ही इसलिए जाती थीं, कि उससे कोई बात सिखानी हो। अभिभावक
यदि एक किताब खरीदते तो उसका पढ़ा जाना सुनिश्चित करने के बाद ही दूसरी किताब खरीदी
जाती थी। परिवेश की विविधता की समझ या उसके प्रति सम्मान की समझ इसलिए देर से आई क्योंकि इन सबके होने पर कम ही
बात हुई। जो कि किताबों की उपलब्धता की वजह से संभव हो सकती थी। चाहे वह
विविधविषयी हों, विभिन्न विधाओं और शैली की या विभिन्न आयु वर्ग के लिए तैयार
की गई किताबें। एक बच्चे के आसपास किताबों का विविध संसार उसे समृद्ध करता है।
समाज में
बहुत सकारात्मक परिवर्तन आए हैं। लेकिन पढ़ने की संस्कृति को लेकर जैसा माहौल होना
चाहिए वह अभी अनेक प्रयासों की मांग करता है। इसकी शुरुआत बच्चों के लिए लिखे या
तैयार किये गए साहित्य से हो सकती है।
अमूमन यह
माना जाता है बचपन बहुत मासूम, मस्ती और खुशियों से भरा होता
है, एक हद तक जो कि सही है। लेकिन पूर्णतः नहीं। अगर हम अपने
बचपन को याद करें तो हम पाएँगे कि बचपन में अनुभव के जिस दायरे में हम जी रहे थे, समय बिता रहे थे, उन परिस्थितयों के अपने संघर्ष,
तनाव और चिंताएँ थीं। यह एक आम मध्यमवर्गीय बचपन की बात हो रही है।
इनमें हम हाशिए के बचपन को जोड़ लें तो बाल साहित्य और बाल अनुभव का कैनवास बहुत
बड़ा हो जाता है।
बच्चों की
पढ़ने में बहुत रुचि होती है। अगर उन्हें मनचाहा किताब मिल जाती है तो वे उससे
घंटों जुड़े रहते हैं। वर्तमान परिदृश्य में एक बच्चा जो जीवन जी रहा है, उसमें उसके लिए स्वयं से इतर बच्चों को देखने
और उनसे व उनके अनुभवों से भावनात्मक रूप से
जुड़ने का स्पेस बहुत कम रह गया है। कुछ मौके तकनीक ने अवश्य उपलब्ध कराए हैं
लेकिन उसमें उस स्तर की संवेदनशीलता और ‘क्युरेटेड सामग्री’ का अभाव ही दीखता है।
खासकर जब बात अलग बचपन की हो। अलग बचपन का अर्थ वंचित बचपन से हैं। इसमें आर्थिक, सामाजिक, मानसिक, शारीरिक
आदि आयाम शामिल हैं। बाल साहित्य एक ही जीवन में कई जिंदगियों को जीने का मौका
देता है। ये किताबें बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य, भावनात्मक
जुड़ाव, संवेदनशीलता एवं सामाजिक सामंजस्य में
महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ये किताबें दैनिक जीवन के उन कोने-अंतड़ो की ओर भी
उनका ध्यान ले जाती हैं जो उनके जीवन की संभावित
चुनौतियाँ भी हैं। जिनपर हम अमूमन बात नहीं करते।
हम इस बात
को बहुत गहरे महसूस करते होंगे कि हमे अच्छी किताबों तक पहुँचने में बहुत देर हुई।
जब तक हम किताबों तक पहुँचे तब तक सामाजिक टैबू हमारे भीतर जड़ें जमा चुकी थीं।
जिनसे मुक्त होने में हमें लम्बा अर्सा लगा और अतिरिक्त उर्जा भी लगी। कितना
सुन्दर हो जब बच्चा इन विसंगतियों को समझते हुए बड़ा हो। तब वह अपनी ऊर्जा के बड़े हिस्से को समाज में रचनात्मक रूप से कंट्रीब्यूट कर सकता है। किताबें हमें इन
मायनों में समृद्ध करती हैं कि हम अपने अनुभवों को जिस पारम्परिक दृष्टि से दखते
आये हैं उसे भिन्न-भिन्न दृष्टि से देख सकें। किताबें बेशक अचानक से कुछ भी न
बदलती हों, लेकिन हाँ वे एक खिड़की तो खोल ही देती हैं।
बाल साहित्य
के पाठक कौन हैं? बच्चे, या
उनके अभिभावक या शिक्षक भी, या वह समाज जहाँ बच्चे हैं। जब
बच्चे इस समाज का हिस्सा हैं तो भारतीय भाषाओँ के बाल साहित्य को लेकर इतनी
उदासीनता क्यों दिखाई देती है? इस तरह के कई सवाल हैं जिससे बाल
साहित्य जूझ रहा है।
वर्तमान बाल
साहित्य की कई चुनौतियाँ हैं जिसमें प्रमुख हैं अच्छी किताबों के प्रकाशन का अभाव, सुगम और सस्ती किताबें, सीमित वितरण चैनल जिसके
माध्यम से बच्चों द्वारा उपलब्ध पुस्तकों तक पहुँचा जा सके, सजग अभिभावक और शिक्षक, स्वत्रंत पाठक एवं समीक्षक
जो अच्छा क्या है उसे पहचान कर उनकी उपलब्धता की वकालत कर सकें। हिंदी भाषा का बाल
साहित्य उतना ही पुराना है जितनी की यह भाषा। बाल साहित्य के विकास और प्रसार के
लिए पिछले कई दशकों से कोशिशें होती रही हैं। आज भी कई प्रयास इस ओर किये जा रहे
हैं। शहरी क्षेत्र के पब्लिक स्कूलों में बाल साहित्य के उपयोग को लेकर सीमित
सजगता दिखाई देती है। पिछले डेढ़-दो दशकों में विशेषकर हिंदी भाषा में ठीक-ठाक मात्रा
में साहित्य का प्रकाशन एवं वितरण किया गया है। सरकारी योजनाओं द्वारा विद्यालयों
में बालपुस्तकालय की स्थापना या सार्वजानिक पुस्तकालय में चिल्ड्रेन्स कॉर्नर जैसे
कार्यक्रमों से किताबें तो स्कूलों या पुस्तकालयों तक पहुँच रही हैं । लेकिन उनसे नव
पाठकों का जुड़ाव बनाने को लेकर सीमित प्रयास हुए हैं।
विगत डेढ़ दशकों से डिजिटल माध्यमों के प्रसार ने भी सभी आयु वर्ग के पढ़ने की आदत को प्रभावित किया है। जाहिर है नए पाठक भी इससे अछूते नहीं हैं। कुछ हलकों में यह बात भी सुनाई देती है कि शिक्षा में साक्षरता के लिए बाल साहित्य का प्रकाशन एवं उपयोग उसके अर्थ को सीमित कर रहा है। जो कि सही नहीं जान पड़ता। प्रयास चाहे स्कूली संस्थायें करें या प्रकाशन से जुड़े लोग, सरकारी या गैर सरकारी योजनायें, जो भी हों वे इस जरूरता के साथ होने चाहिए कि इससे एक बड़ा पाठक वर्ग तैयार हो, जो पढ़ने के प्रभावों को समझे, साथ ही अच्छी किताबों से जुड़ें। उन्हें पढ़े, उनपर चर्चा करे। साथ ही पढ़ने को अपनी नियमित दिनचर्या का हिस्सा बनाने के लिए प्रयासरत हों ।
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