नाटक गाँव के नाम ‘नरेंद्रपुर’ है!
संस्मरण
(नाच उपन्यास की पूर्व पीठिका)
(नाच किशोर पाठकों के लिये लिखा गया उपन्यास है, जो इस महीने एकलव्य, भोपाल से प्रकाशित हुआ है। तकरीबन दस साल तक इसपर काम करता रहा। इन वर्षों में इसके अलग-अलग ड्राफ्ट तैयार हुए। पाठकों के सुझाव भी मिले। सहयोग के लिये सभी का शुक्रिया। वैसे इसके लेखन प्रक्रिया की शुरुआत वर्ष 2016 के आरम्भ में हुई थी। जब मुझे एक कथा शिविर में भाग लेने का मौका मिला था। जिसके अनुभवों को आधार बनाकर एक संस्मरण भी लिखा था, जो कथा शिविर की स्मारिका में साथी कथाकारों के साथ प्रकाशित भी हुआ था यहाँ प्रस्तुत है वह संस्मरण।)
जिस दिन
शिविर के लिए बालेसर से निकलना था, उस दिन लोड़ता अचलावता के स्कूल नहीं
जा पाया। मेरी टीम के सदस्य तो नियमित रूप से स्कूल गए, लेकिन मैंने रिपोर्ट जमा करके शाम से थोड़ा पहले ही कमरे पर
लौटने का फैसला किया। मेरी पैकिंग पहले से ही तैयार थी, इसलिए मैंने बालेसर से जोधपुर के लिए बस पकड़ ली। जोधपुर से मुझे मंडोर
एक्सप्रेस पकड़नी थी, जो मुझे सुबह दिल्ली
पहुँचाने वाली थी। बालेसर से निकलते वक्त हल्की ठंड थी, लेकिन
जोधपुर पहुँचते ही ठंड थोड़ी बढ़ गई। ट्रेन भी कुछ देर से चल रही थी, और उसका इंतजार करना बहुत मुश्किल हो रहा था। फिर भी अगली सुबह तकरीबन दस बजे तक मैं दिल्ली
में था।
हिसार के किसान आंदोलन के कारण तिनसुकिया
(अवध असम एक्सप्रेस) अपने निर्धारित समय से काफी विलंब से चल रही थी। ट्रेन का रूट
परिवर्तित कर दिया गया था। दिल्ली स्टेशन से ट्रेन तकरीबन सात घंटे विलंब से खुली।
बोगी खचाखच भरी हुई थी। दुल्हन को लेकर पूरी बारात वापस लौट रही थी। मिठाइयों और
सामान से बोगी का इंच-इंच अटा पड़ा था। एक सज्जन ने मेरी साइड लोवर की सीट बरेली तक
कब्ज़ियाए रखा। उनकी ज़िद थी कि बैठेंगे तो नीचे की ही सीट पर। मैंने बिना बहस के
ऊपर की सीट पर आराम फरमाना उचित समझा।
अगले दिन सिवान पहुंचते-पहुंचते ट्रेन आठ
घंटे से ज़्यादा विलंबित हो गयी थी। ट्रेन में बहुत सारे सहायात्री खाड़ी देशों से कमा
कर छुट्टी में वापस लौट रहे थे। बहुत सारे सामान थे उनके। वे सब लोग सिवान के
आसपास के गाँवों से थे। कोई पाँच साल से बाहर था, तो कोई आठ साल से। कुछ लोग
साल भर से वापस लौट रहे थे तो कुछ ढाई-तीन साल के बाद। अमूमन हर कोई अकेला ही
कमाने गया था। उन सभी के चेहरे घर लौटने के उत्साह से दमक रहे थे।
पूरब से सूर्य आसमान की ओर चढ़ने की फ़िराक में था। हवाएँ अभी भी ठंडी ही थी। ट्रेन बिहार के अंदर प्रवेश कर चुकी थी। मैं गेट तक चला आया। चारों तरफ भरा पूरा हरे-पीले रंग का बधार जैसे मेरे स्वागत में खड़ा था। रास्ते में जीरादेई स्टेशन गुज़र गया। जीरादेई स्टेशन के बोर्ड की एक झलक ने मेरी जिज्ञासाओं को जैसे अचानक ही बढ़ा दिया था।
जब मैं स्टेशन पहुंचा, मेरी घड़ी
सुबह के दस बजा रही थी। स्टेशन से जब मैं नरेंद्रपुर निकल रहा था, तो मैं जे०पी० सर्किल देखना चाहता था। जहां चंद्रशेखर की हत्या हुई थी।
उषा किरण खान जी ने जिसके आधार पर उपन्यास ‘सीमांत कथा’ की रचना की है। मेरी गाड़ी
उस चौक से होती हुई दारोगा प्रसाद राय इंटर कॉलेज के सामने से गुजरी। एक पुरानी-सी
पीले रंग की बिल्डिंग। एक बड़ा अहाता। जहां कहीं भी चर्चा होती है, इस कॉलेज का ज़िक्र ज़रूर हो जाता है। ‘चंदू’ ने यहीं से पढ़ाई की थी।
थोड़ी ही देर में हमारी गाड़ी हरे-हरे खेतों के
बीच सरकती जा रही थी। उत्तर बिहार में यह मेरी पहली यात्रा थी। गंगा के इस पार और
उस पार में ज़्यादा अंतर नहीं दिखता। रोड के दोनों तरफ सरसों, गेहूँ,
मटर की फसलें लहलहा रही थी। बसंत धमक दे चुका था। समूचा बधार हरे
दुशाले में लिपटा दिख रहा था। जिस पर गुलाबी, बैंगनी और पीले
रंगों के महीन सितारे जड़े हुए। रास्ते में कई जगह सेना में शहीद हुए सैनिकों के
आदमकद बुत दिखे। हर गाँव के लिए यह सम्मान की बात है। कहीं-कहीं गुलाबी, सफ़ेद, नीले और पीले रंग के छोटे-छोटे पिरामिडनुमा
समाधि स्थल भी समूहों में बने दिखाई दिए। मैंने अनुमान लगाया कि ये गाँव के
महत्वपूर्ण लोगों की स्मृति में बनाए गए होंगे।
सिवान से लगभग बीस किलोमीटर चलने के बाद
जीरादेई ब्लॉक का बोर्ड दिखाई दिया। गाड़ी मुख्य सड़क छोड़कर अब दूसरे रास्ते पर थी।
अब मैं जीरादेई गाँव से गुज़र रहा था। वह देश के प्रथम राष्ट्रपति का जन्मस्थान है। उस गाँव के लोग लेकर एक अलग प्रकार की अनुभूति हो रही थी। इसका नाम अब तक किताबों में ही पढ़ता आया था। जो अब एक कस्बे
के रूप में विकसित हो चुका है। स्कूल, कॉलेज,
बैंक, मार्केट सभी कुछ तो हैं इस गाँव में।
रास्ते में 'राजेन्द्र प्रसाद का जन्मस्थान' ‘राजेन्द्र उद्यान’ जैसे कई ग्रीन
साइनेज जगह-जगह पर दिखाई पड़ रहे थे, जो इस गाँव को नज़दीक
से जानने की जिज्ञासा पैदा कर रहे थे।
नरेंद्रपुर पहली ही नज़र में एक अलग गाँव के रूप में उभर कर आया। साफ़-सुथरी गाँव की सड़क, दोनों तरफ बड़े-बड़े पक्के मकान, बाग़ीचे, स्वास्थ्य उपकेंद्र, पानी की टंकी, हरे-भरे खेत आदि। थोड़ी ही देर में मैं परिवर्तन के कैंपस में था। गाँव से तकरीबन डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर मियाँ के भटकन टोले की तरफ जाने वाले रास्ते पर। कैंपस शानदार था। गेट पर ही बड़े आकार की एक होल्डिंग लगी हुई थी। जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था- ‘कथा शिविर-पात्र से मिलिए’। कथा शिविर के लिए पहुँचने वाला मैं दूसरा सदस्य था। मुझसे पहले लखनऊ की वरिष्ठ लेखिका डॉ० विद्या बिन्दु सिंह जी रात में ही पहुँच चुकी थी।
थोड़ी देर में फ्रेश होकर मैं शिविर के संयोजक
रंजन कुमार सिंह के साथ परिवर्तन के दफ़्तर में था। संजीव कुमार, जो
परिवर्तन के सचिव हैं, उनसे पहली बार वहीं मुलाक़ात हुई।
परिसर में आसपास के गाँवों से ग्रामीण आने शुरू हो गए थे। सुबह की खामोशी टूटने
लगी थी। परिसर में अब चहल-पहल थी। शायद पंचायत की कोई बैठक होने वाली थी।
लगभग दो बजे आवास की बिल्डिंग के सामने उषा किरण खान, विद्या बिन्दु सिंह, नीलम प्रभा, वंदना राग, नीहारिका सिंह और रंजन सिंह के साथ औपचारिक मुलाक़ात हुई। मेरे लिए सभी लोग अपरिचित थे। उनसे पूर्व का परिचय केवल उनकी साहित्यिक रचनाओं से ही था।
परिवर्तन परिसर में पहली शाम मेहमानों और
मेजबानों के बीच मेल-जोल बढ़ाने और परिचय के नाम रही। परिसर के अंदर बने मंडप में
हम सभी लोग एक गोल घेरे में आमने-सामने बैठे थे। नरेंद्रपुर गाँव से साहित्यकार
डॉ० फणीश सिंह,
एडवोकेट सूर्य नारायण सिंह एवं अन्य ग्रामीण भी उपस्थित थे। सका
अनौपचारिक परिचय के बाद गाँव के ऐतिहासिक परिदृश्य पर बात शुरू हुई।
सूर्य नारायण सिंह ने बताया कि नरेंद्रपुर
गाँव तकरीबन 300
साल पुराना है। मई 2015 में इस गाँव ने धूमधाम
से अपने 300 साल पूरे होने का उत्सव मनाया। इस अवसर पर
वरिष्ठ साहित्यकार हृषिकेश सुलभ उपस्थित हुए थे। नरेंद्रपुर गाँव एक ऐतिहासिक गाँव
है। यहाँ के प्रमुख व्यक्तियों में पटना सचिवालय पर 1942 में
‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ का नारा बुलंद करने वाले उमाकांत सिंह, उनके भाई और बिहार हाईकोर्ट के पूर्व न्यायधीश शत्रुघ्न प्रसाद सिंह एवं
वर्तमान समय के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ० फणीश सिंह। उमाकांत सिंह का स्मारक गाँव के
एक चौक पर बना हुआ है।
जीरादेई प्रखंड के नरेंद्रपुर गाँव में
परिवर्तन संस्था आसपास के लगभग पचास गाँवों के साथ ‘समेकित सामुदायिक विकास’ के
उद्देश्यों को लेकर पिछले पाँच सालों से काम कर रही है। तक्षशिला एजुकेशनल सोसाइटी
इस संस्था को चलाती है। परिवर्तन के परिसर में चलने वाले अलग-अलग प्रोजेक्ट्स को
देखने के बाद यह अनुमान था हो ही जाता है कि यह संस्था ‘समग्रता के साथ विकास’ के
लिए प्रतिबद्ध है।
कैंपस के अंदर बच्चों के लिए बालघर बना है।
जिसे आँगनबाड़ी के तर्ज़ पर विकसित किया गया है। इस बालघर में आस-पास के गाँवों की
आँगनबाड़ी से बच्चे नियमित आते हैं। मधुबाला देवी इस बालघर में बच्चों के साथ काम
करती हैं। बालघर में बेहद आकर्षक रंगों से सजा एक बायस्कोप रखा हुआ है। जिसके अंदर
गाँव,
शहर, सुभाषचन्द्र बोस जैसे बहुत सारे चित्र
दिखाई देते हैं। जिस समय मैं कस्बे और गाँवों के बीच बड़ा हो रहा था, बायस्कोप दिखाने वाले आना बंद कर चुके थे। दशहरे के मेले से कभी कभार
मैंने प्लास्टिक का खिलौनेनुमा बायस्कोप खरीद कर देखा था, जिसमें
फिल्मों की रील लगाकर झाँका जाता था।
बालघर में गणित एवं भाषा के बहुरंगे चार्ट और
शिक्षण-अधिगम सामग्री टँगी थी। कुछ पत्रिकाएँ जैसे बालहंस, चकमक आदि वहाँ ढंग से रखी थी।
जिनकी कविताओं और कहानियों का प्रयोग बच्चों के साथ सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में
किया जाता है। बच्चों के साथ चित्र बनाने, रंगों के प्रयोग, मिट्टी के खिलौने, प्लास्टर ऑफ़ पेरिस के खिलौने,
मिट्टी के बर्तनों पर पेंटिंग, थीर विधि,
कबाड़ और पेपर के काम, मूर्तियाँ, ग्रीटिंग्स कार्ड बनाने जैसे रचनात्मक कार्य कराये गए थे। जिसका शोधकथा था
बालघर का वह हिस्सा। बाहर की दीवारों पर हस्तलिखित कवितायें, कहानियाँ, हाइकू, चित्र आदि
दीवार पत्रिका (चहकने की ललक: परिवर्तन के बच्चों की आवाज़ आदि) के रूप में लगी
हुई थी। बालघर का दूसरा हिस्सा जो सामने की बिल्डिंग के ऊपर के हिस्से में है,
मुख्य रूप से बच्चों की आर्ट गैलरी है। जिसमें आर्ट पेपर, ग्लास आदि को कैनवास की तरह प्रयोग करना सिखाया जाता है। देश के कुछ नामी
चित्रकार भी बच्चों के साथ यहीं कार्यशालाएँ आयोजित कर चुके हैं। उनके पेंटिंग्स
बच्चों की बनाई पेंटिंग्स की दीवारों पर टँगी हुई हैं। कई बच्चों का काम वाकई
तारीफ़े काबिल था। उनके द्वारा रंगों का चयन एवं संयोजन अद्भुत था।
यहाँ कृषि विज्ञान केंद्र की तर्ज़ पर एक
किसान सहायता केंद्र खोला गया है। जहां बीज की किस्मों, जैविक
खेती, थीर विधि आदि की जानकारी किसानों को उनके बलवों के
माध्यम से दी जाती है। परिवर्तन परिसर के खेत में कपास की खेती जैविक तरीके से की
गयी थी। फसल अभी खेत में खड़ी थी। पूछने पर यह पता चला कि अरहर और कपास की फसल के
लिए जलवायु लगभग एक जैसी ही चाहिए होती है। चूंकि इस क्षेत्र में अरहर की फसल
किसान पहले से किया करते थे। इसलिए कपास की फसल भी बोयी जानी लगी है। गाँव में
खेती अच्छी लगी मुझे। गेहूँ, सरसों, मटर
जैसी फसलें खेतों में तैयार दिख रही।
किसी भी नए शहर में जाता हूँ तो सबसे पहले लाइब्रेरी खोजता हूँ। परिवर्तन के परिसर में भी मेरी कोशिश यही थी। बालघर के बाद मैंने पुस्तकालय का रुख किया। पुस्तकालय का भवन मुख्य रूप से तीन हिस्सों में विभाजित था। पुस्तकालय और रीडिंग रूम, विज्ञान प्रयोगशाला और कंप्यूटर लैब। विभिन्न विषयों खासकर साहित्य और बच्चों के लिए एक अच्छी लाइब्रेरी है। यहाँ आने वाले बच्चों के साथ समय-समय पर कार्यशालाएँ भी कराई जाती हैं। कुछ बच्चे वहाँ पढ़ रहे थे। दूसरे भाग में बच्चों का एक ग्रुप विज्ञान प्रयोगशाला में ‘कॉलिजन बॉल ऑपरेटर’ के साथ न्यूटन के गति के तीसरे नियम के साथ-साथ द्रव्यमान के संरक्षण सिद्धांत को बड़े ही ध्यानपूर्वक समझ रहे थे। उच्च माध्यमिक कक्षा स्तर तक के लिए यह प्रयोगशाला उपयुक्त लगी। कंप्यूटर लैब को अत्याधुनिक तरीके से बनाया गया है। जिसका उपयोग बच्चे आसानी से करते दिखते हैं। एक रिसोर्स सेंटर के रूप में परिवर्तन का यह भवन विकसित होता दिखा। इसी परिसर में ‘मैजिक बस’ संस्था परिवर्तन के साथ मिलकर खेल के माध्यम से बच्चों एवं किशोरों के विकास पर काम कर रही है। जिसका कार्यक्रम ‘बालवाड़ी और रिसोर्स सेंटर’ के पूरक की तरह काम करता है।
ज्योति परिवर्तन महिला समस्याओं के सदस्यों
से मिलना काफी सुखद रहा। रजावती कुँवर, मंजू देवी, गीता देवी, फूलकुमारी जैसी सक्षम ग्रामीण महिलाओं की
टीम से लगभग दो घंटे बातचीत चली। जिसमें उन्होंने महिला समस्याओं से जुड़ने,
काम की चुनौतियों एवं रणनीति के बारे में विस्तार से बताया। यह
महिला समूह साफ़-सफाई, घरेलू हिंसा, बचत
और पंचायत राज जैसे विषयों पर खुल कर चर्चा करता है। आसपास के गाँवों की महिलाओं
से मिलता-जुलता है। उन्हें आत्मविश्वास देता है। उनकी समस्याएँ सुनता है और उसका
हर संभव निदान भी करता है। अब तक कुल पैंतीस समस्याओं में से तीन समस्याओं का
निदान इस महिला समस्या की टीम ने कर दिया है। जिस समय महिलाएँ अपने अनुभवों को
साझा कर रही थी, उनके चेहरे और उनकी आवाज़ में एक आत्मविश्वास
दिख रहा था। महिला सशक्तिकरण की ओर परिवर्तन का प्रयास सफल दिखता है, क्योंकि इस महिला समूह ने न सिर्फ़ महिलाओं को जागरूक बनाने की मुहिम शुरू
की है, वरन उनको इस समूह से जोड़ने, उनके
समस्याओं के निदान पर भी काम कर रही हैं। इस समूह से जुड़ी महिलाएँ अपने कामों की
ज़िम्मेदारी भी लेती हैं। एक बहनापा सा दिखा मुझे उनमें।
प्रथम, सृजनी, मैजिक बस जैसी संस्थाएँ परिवर्तन को अलग-अलग प्रोजेक्ट्स में सहयोग कर रही
हैं।
हल्का अंधेरा घिरने लगा था। सोलर प्लेटों की
सहायता से दूधिया रोशनी धीरे-धीरे परिसर में फैलने लगी थी। राजेन्द्र उपाध्याय जी, अभिषेक
पांडे और श्रद्धा थवाईत भी हमें ज्वाइन कर चुके थे। कैंपस में ग्रामीणों की
मीटिंग्स समाप्त हो चुकी थी। कुछ लोग ‘ओपेन थियेटर’ की तरफ बढ़ चले थे। जहां
परिवर्तन नाट्य दल के सदस्यों ने दिन भर की तैयारी के बाद हम सभी के लिए एक नाटक
तैयार किया था।
शाम के सात बज चुके थे। अर्द्धचंद्राकार
विस्तार लिए ओपन थियेटर नाटक के लिए तैयार था। पृष्ठभूमि काले रंग की थी। जिसमें
रंगीन पतंगी कागज़ों की पताकाओं की लड़ियाँ सजी थी। उत्सव जैसा माहौल था। दर्शक
दीर्घ में बनी सीढ़ियों पर गाँव से आए लोग बैठे हुए थे। रुसी-पुरुष महिलाएँ...
बच्चे। मैं सामने लगी कुर्सियों में बैठ गया। मंच के ठीक सामने थे रोहन सचदेव जी
स्टेज के साउंड,
लाइटिंग की जिम्मेदारी संभाल रहे थे। संजीव जी मेरे पास बैठे।
उन्होंने बताया की रोहन, फ़ेलो के रूप में परिवर्तन के बारे
में अपनी समझ बनाते हुए, अपनी सेवाएँ दे रहे है। वे रंगमंच
से जुड़े हैं। आई-वोलिंटियर के दो फ़ेलो भी परिवर्तन के कामों की समझ के लिए आए
हुए हैं। मैंने जिज्ञासावश सामुदायिक रेडियो और ग्रामीण पर्यटन को लेकर संजीव जी
से चर्चा की। अपने कुछ अनुभवों को उनसे साझा किया। बातचीत से यह अनुमान लगा कि वे
परिवर्तन के लिए कुछ प्रयास कर चुके हैं। और बहुत कुछ जाने वाले है। जिनमें
परिवर्तन का ‘इंटरनेट रेडियो’ जल्दी ही शुरू होने वाला है। लोक संगीत बज उठा था।
सामने मंच पर सूत्रधार ‘आशुतोष मिश्रा’ उपस्थित हुए। लोककलाकार भिखारी ठाकुर की
रचना ‘बेटीबेचवा’ का मंचन शुरू हो गया था।
‘वार्तिक’ को लेकर एक स्त्री पात्र उपस्थित थी। भिखारी ठाकुर अपने दर्शकों से मुखातिब होते हुए कुछ बातें कहते थे। पात्र ने हम दर्शकों से बातें शुरू कीं...
‘हमरा मन में ई मालूम होत बा जे बाल-वृद्ध-विवाह विश्वासघात ह। कहे से जे
शादी-योग लड़ की हो जाली, तब वो लड़ की के बाप कहेलन अपना जाति -प्रेमी
से जे चले के एगो लड़का देखे..........”
“आदमी चार पइसा के जे तरकारी कीने जाला, तेकरा
के समुझावे के परेला कि चतुर आदमी से कि नवइह, ना त तू ठगा
जइब...””
मंच से कलाकार बड़ी ज़िम्मेदारी से संवाद अदा
रहा था। मैं मोहित सा जैसे सबकुछ सुन रहा था...।
गाँव के लड़के-लड़कियाँ बड़े आत्मविश्वास से
पात्रों की जीवंत कर रहे हैं। बीच-बीच में पार्थ संगीत बज उठता था...गीत भावों को
और गाढ़ा कर रहे थे...
सुनु प्यारी सुकुमारी बात
नींद परत ना दि ने रात
बबुई के कहूँ सादी करब
रुपया ले के घर में धरब॥
पैसे
लेकर बेटी की शादी किसी भी उम्र के पुरुष से कराने की प्रथा का भिखारी ठाकुर ने
विरोध इस रचना के माध्यम से किया था।
बेटी बेंचि के धईल माल। तोहरा सिर पर चढ़ल काल।
चढ़ल बंस के पानी गइल। जब से तोहार जबाना भईल॥
आइसन बंस में जमल
कूर। दया धरम के कइल दूर॥
जहां चटक जवान कहने वाले पंडित पात्र के एक- एक संवाद पर हंसी रोके नहीं रुकती थी, वहीं बेटी उपात्रों के ज़बरन विदाई पर उसके विलाप से दर्शक भावविभोर होते रही थी। लगा रहा था कि जैसे सबकुछ सामने घटित हो रहा हो। सचमुच का।
खुसी से होता बिदाई, पथल
छाती कइलस माई;
दुधवा पियाई बिसराई देली हो बाबूजी।
लाज सभ छोड़ि कर, दूनों
हाथ जोड़ि कर;
चित में के गीत हम गावत बानी हो बाबूजी।
पवन राम ने दुलहा के रूप में बहुत ही वाहवाही
अर्जित की। सभ्य संवाद अदायगी, वस्त्र सज्जा, अभिनय
और गायकी...सबकुछ जैसे बहुत अदा था। मैंने भिखारी ठाकुर को अभिनय करते नहीं देखा
है, लेकिन इन मंचन को देखते हुए यही लग रहा था कि नए
कलाकारों की टीम ने जैसे ‘बेटीबेचवा’ में जान डाल दिया था। यह अनुमान नहीं था।
अलग-अलग दृश्य जैसे मस्तिष्क पटल पर अंकित हो गए। ग्रामीण क्षेत्र की नई पीढ़ी
अभिनय को लेकर इतनी संजीदा भी होगी। नाटक खत्म होने पर सभी लोग भावुक थे। नाटक और
पात्रों के अभिनय की चर्चा पूरे शिविर भर होती रही।
बेटीबेचवा के बाद परिवर्तन के ऑफिस में एक
अनौपचारिक बैठक हुई। चूंकि सभी प्रतिभागी आ चुके थे। इसलिए उषा जी और रंजन जी ने
आगामी कार्यक्रमों के बारे में विस्तार से चर्चा की गयी। नरेंद्रपुर गाँव भ्रमण की
योजना भी तय हुई।
अगले दिन हम सभी नरेंद्रपुर गाँव के मुखिया
जी के दरवाज़े पर बैठे थे। एक बुजुर्ग जिन्हें गाँव के लोग समंदर सिंह कहते हैं, उन्होंने
गाँव के बारे में विस्तार से बताया। साथ ही सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में गाँव
की प्रगति की बात की।
डॉ० राजेन्द्रप्रसाद के जन्मस्थान से तकरीबन 10 किलोमीटर
की दूरी पर यह गाँव अवस्थित है। गाँव राजपूत बहुल है। लेकिन कुर्मी, कानू और मुसलमान भी इस गाँव में हैं। जिनकी संख्या ज़्यादा आस-पड़ोस के
टोलों जैसे तिवारी भटकन और मियाँ के भटकन में है। गाँव की आजीविका का मुख्य आधार
कृषि ही है। खेती में रबी-ख़रीफ़ की अच्छी खेती होती है। गन्ने की खेती भी की जाती
है। धान और गेहूँ की अच्छी किस्में यहाँ पैदा होती है। लेकिन जैविक खाद का कोई
कल्चर विकसित नहीं हो पाया है। गाँव के ज़्यादातर लोग कृषि से बहुत ख़ुश नहीं हैं।
गाँव में बहुत सारे बड़े पक्के मकान दिखते हैं। लेकिन उनमें से ज़्यादातर खाली
पड़े हुए हैं। ज़्यादातर लोग सिवान में रहते हैं। उनके घर सिवान शहर में भी हैं और
गाँव में भी। आसपास के 30 गाँवों के साठ-तीन सौ से ज़्यादा
परिवार खाड़ी देशों में हैं। वहाँ से आने वाला ‘पेट्रोडॉलर’ ही आर्थिकी का आधार है।
अलग-अलग धर्म और जाति के होने के बावजूद यहाँ जातिगत या धार्मिक बातों को लेकर कोई
विवाद नहीं होता है। सामाजिक समरसता का माहौल दिखता है यहाँ। गाँव में मंदिर और
दरगाह पास-पास में है। उनके प्रति गाँव के लोगों की समान रूप से श्रद्धा दिखती है।
समंदर सिंह यह भी बताते हैं कि यहाँ के राजपूतों का संबंध सिसोदियां राजवंश के
शक्ति सिंह से है। बातचीत के क्रम में उन्होंने बिलाड़ा गाँव के बाबु बंशीधर का भी
ज़िक्र किया। महमूदपुर के ब्राह्मण ही आस-पास के बारह गाँवों के राजपूतों की
कुलदेवी की पूजा करते हैं। इस गाँव में 300 साल पुराना एक
कुआं भी है। गाँव के लोगों के पास उनकी वंशावली भी उपलब्ध है। इन्हीं सब तथ्यों के
आधार पर इस गाँव को 300 साल पुराना बताया जाता है।
गाँव के समंदर सिंह के साथ घूमते हुए हम सभी
बेटीबेचवा से चर्चित हुए पंकज कुमार के घर पहुँचे। कथाकार मोहम्मद आरिफ भी अब
हमारे साथ थे। पंकज के घर पर हमने उनके पिताजी और भाइयों से मुलाक़ात की। पंकज के
पिता उसके द्वारा किए जाने वाले कामों से काफ़ी संतुष्ट थे। उनके घर के सामने
बैलों के चरन और बसवारी के बीच चारपाई डाली गयी। जहां हम सभी बैठे। गाँव के बारे
में बातों का सिलसिला चल पड़ा। लोकगीत, संस्कार गीत आदि पर बात होने
लगी थी। बीच-बीच में लोकोक्तियों और कहावतों के बारे में बातें भी हुई। गाँव के
बुजुर्ग ने याय-भदुरी की कहावतें सुनाईं। उन्हें बहुत सारी कहावतें कंठस्थ थीं।
मसलन
चैते गुड़ बैसाखे तेल |
जेठ क पंथ असाढ़ क बेल ||
सावन साग न भादों दही |
कार करेला काति क माहि ||
अगहन जीरा पूसे धना |
माघे मि सरी फागुन
चना ||
(चैत में गुड़, बैसाख में तेल, जेठ में राई, आसाढ़
में बेल, सावन में साग, भादो में दही,
कुंआर में करेला। कार्तिक में मट्ठा, अगहन में
जीरा, पूस में धनिया, माघ में मिसरी और
फागुन में चना-हानिकारक है।)
हम सभी गाँव के लोगों से बात कर रहे थे कि
तभी पास के रास्ते से एक दूल्हा कुछ स्त्रियों के साथ गुज़रा। दूल्हे ने नीले रंग
का सूट पहना हुआ था। शायद बारात से लौटा था। चौथारी छुड़ाने के लिए जा रहा था।
हमारे अनुरोध पर उसने मुस्कुराते हुए कुछ पोज़ दिये और फोटो खिंचवाये।
नरेंद्रपुर गाँव में एक पुराना पोखरा है।
पोखर के पास शिवजी का विशाल मंदिर है। वहीं पास में उमाकांत सिंह इंटर कॉलेज और
शिवकुमार सिंह स्मृति संगीत महाविद्यालय। एक होमियोपैथिक क्लीनिक...सुविधाओं से
भरा-पूरा एक गाँव।
गाँव के भ्रमण पश्चात परिवर्तन परिसर में
आयोजित पंचायत के प्रतिनिधियों और ग्रामीणों की बैठक में भाग लेने को मिला।
विकेन्द्रीकरण में समस्या यह है कि पंचायतों को आज भी उनके अधिकार नहीं मिल पाते
हैं। ग्रामीण जनता तो उन्हें चुन कर भेजती है, उन्हें ये लगता है कि मुखिया
जानबूझ कर उनके काम नहीं करते। केवल अपने खास लोगों और रिश्तेदारों पर ही ध्यान
होता है। लेकिन इस बैठक में उपस्थित कुछ प्रतिनिधियों ने अपनी वास्तविक समस्याएँ
रखीं। जैसे ऊपर के अधिकारी उन्हें साफ़-साफ़ कुछ भी नहीं बताते। जिसकी वजह से
उन्हें काम करने में परेशानी आती है। कोई विशेष प्रशिक्षण भी नहीं मिलता है। ऐसी
स्थिति में अगर गाँव के लोगों का भी सहयोग नहीं मिले तो काम होने की संभावना बहुत
कम हो जाती है। इस तरह की अनेक चिंताओं के बारे में आस-पड़ोस के मुखिया जी लोगों
ने अपनी बात रखी थी। एक मुखिया ने पंचायती राज में काम न करने की अपनी परेशानी को
इस प्रकार बयान किया कि
“नौकरी छोड़ कर चुनाव लड़ा था,
ना जीते बन रहा है, न मरते बन रहा है। शाम में
तनाव बढ़ने से नींद नहीं आती है।”
शाम की बैठक परिवर्तन परिसर के कॉटेज में हुई। कार्यक्रम की शुरुआत कैफी आज़मी की नज़्म ‘दिसंबर’ और गोपाल सिंह नेपाली की रचना ‘नवीन कल्पना करो’ से हुई।
इस बैठक में सबसे पहले सिवान की कथाकार वंदना
राग ने ग्रामीण परिवेश पर आधारित अपनी कहानी ‘कठकरेज़’ पढ़ी। कहानी में एक स्त्री
द्वारा अपने पति से बदला लेने और उसके कारणों, परिस्थितियों को लिखा था।
श्रद्धा थवाईत की कहानी ‘तीन दिन तीन लोग’ एक
युवा मन में पैदा हुए गाँव से लगाव को दिखाया था।
दोनों कथाकारों की कहानियों पर उषा किरण खान, विद्या
बिन्दु सिंह, डॉ० नीहारिका, रंजन कुमार
सिंह और मो० आरिफ ने मिश्रित प्रतिक्रिया दी।
इस तरह की प्रतिक्रियाएँ आगामी पढ़ी गयी
कहानियों को भी मिली।
पूरे शिविर के दौरान कई ऐसे मौके मिले जब हम
लोग अनौपचारिक रूप से बैठे। एक शाम मो० आरिफ़ जी ने वार्ग़थ के नवलखेन से लेकर आज
तक के परिदृश्य पर हमें विस्तार से बताया। उनके साथ उस समय के रचनात्मक माहौल, कहानियों
पर पाठकों और वरिष्ठ साहित्यकारों द्वारा प्रतिक्रिया, सकारात्मक
माहौल पर चर्चा हुई। उन्होंने कई कथाकारों के नाम बताए, उनकी
प्रतिनिधि कहानियों के नाम भी बतायें जिनसे नई पीढ़ी को पढ़ना चाहिए। उस रात बाहर
बजे तक बाहर लॉन में अभिषेक, श्रद्धा और मैं, आरिफ़ जी साथ बैठे हिन्दी कहानी और उसमें संभावनाओं की तलाश को लेकर बात
करते रहे थे।
अगले दिन जीरादेई ब्लॉक के दो गाँवों में
घूमने का कार्यक्रम बना। पहला गाँव रूइया बड़गंवा जो नटवर लाल के गाँव के रूप में
जाना जाता है। उस गाँव के लोगों के साथ हमने गाँव के कुछ जगहों को देखा जहां नटवर
लाल उर्फ़ मिथिलेश कुमार श्रीवास्तव का पुश्तैनी घर रहा होगा। कुछ कथाएँ आज भी इस
गाँव में उस व्यक्तित्व को लेकर होती हैं। लेकिन यह एक कटु सत्य भी है कि उनके
बारे में,
उनके परिवार के बारे में कोई ठीक-ठीक जानकारी उनके ही गाँव में नहीं
दे पाता। एक कहावत जो सुनने को मिली तो इस प्रकार थी-
नटवरलाल के निकलल घोड़ा,
विश्व में एकर नईखे जोड़ा
जीरादेई गाँव से निकलकर हम पास के ही जामा
गाँव के एक दुआर पर बैठे। बैजनाथ सिंह नाम के एक बुजुर्ग ने बताया कि उन्होंने
राजेन्द्र बाबू को सात-आठ वर्ष की आयु में इस गाँव में देखा था, जब वो
पारिवारिक विवाह में शामिल होने के लिए आए थे। उन्होंने राजेन्द्र बाबू और हीरा
सिंह की दोस्ती के किस्से बताए। हीरा सिंह ने ही राजेन्द्र बाबू के बड़े भाई के नाम
पर गाँव में हाई स्कूल बनवाया था- महेंद्र हाई स्कूल। आरिफ सर ने यहाँ के बच्चों
से राजेन्द्र बाबू के बारे में कुछ जानना चाहा था। बहुत सकारात्मक उत्तर नहीं
प्राप्त हुए।
रुइयाँ बंगरा, जामा, जीरादेई
और नरेंद्रपुर गाँव संपन्न जैसे जरूर लगे। लेकिन एक मायूसी सी पसरी थी वहाँ। कई
बड़े-बड़े हवेलीनुमा मकान, जिनका किसी समय रुतबा रहा होगा। आज बहुत बेहाल-खंडहर
जैसे दिखते हैं। कोई रहने वाला नहीं। वंदना राग से बातों ही बातों में मैंने कह
दिया था कि अगर लोगों को यहाँ रहना नहीं है, तो इन मकानों को
गाँव के ज़रूरतमंदों को क्यों नहीं दे देते? कम से कम घर की
और गाँव की रौनक तो बरकरार रहेगी।
इन
गाँवों से लौट कर आने के बाद हमने परिवर्तन परिसर में बच्चों के कविता प्रतियोगिता
समारोह में भाग लिया। जहाँ बच्चों की संख्या सबसे ज़्यादा थी। बच्चों के साथ-साथ
नीलम प्रभा और राजेन्द्र जी की कवितायें भी सुनने को मिली थी।
कथा
शिविर का अनुभव मेरे लिए शानदार रहा। सबसे पहले तो एक बड़े मंच पर खुद की बातों को
रखना और अपनी कहानी पढ़ने का मौका मिला। जिस पर कमोबेश सबकी प्रतिक्रियाएँ मिलीं।
चंद वरिष्ठों की उपस्थिति ने मुझ जैसे युवा रचनाकर को आत्मविश्वास से भर दिया।
तथाशुदा कार्यक्रमों के अलावा कहानियों के साथ-साथ, लोक संगीत ने वातावरण की ऊर्जा को
चारों दिन बनाए रखा। कैफ़्री आज़मी, गोपाल सिंह नेपाली,
अमीर खुसरो, कबीर के साथ साथ फगुआ, निर्गुण आदि के रस में हम बराबर सराबोर होते रहे। एक सुबह मियाँ के भटकन
में संत के चाय दुकान के सामने बिताए तीन घंटे ने गाँव को समझने में काफी मदद की।
पलायन एक बड़ी समस्या के रूप में उभर कर आया था। वजह आर्थिक से जुड़ी जरुर थी।
लेकिन नुकसान गाँव का ही तो है।
मुझे
ज़्यादा सीखने और समझने का मौका शिविर में दौरान होने वाली अनौपचारिक चर्चाओं में
ही मिला। पहले दिन ही विद्या बिन्दु जी और नीलम प्रभा जी के साथ बैठा था और लोक
साहित्य पर लम्बी चर्चा चली। वंदना राग और मो० आरिफ के साथ बैठने पर कहानी का युवा
संसार खुलता चला जाता। कई मौके ऐसे हैं जब मैं नीलम प्रभा जी, उषा जी, वंदना राग आदि के साथ देर-देर तक बैठा। खुब सारे साहित्यकार, उनके जीवन वृत्त, उनके रचना कर्म पर बातें हुई।
जिसने साहित्य को समझने में एक दिशा ज़रूर दी है। शिविर में सबसे ज़्यादा प्रभावित
दो कहानियाँ ने किया- मोहम्मद आरिफ की कहानी- एक दोयम दर्जे का प्रेम पत्र,
दूसरा अभिषेक पांडेय की कहानी- वजीफ़े की कीमत। वंदना राग, उषा किरण खान जी की कहानी उम्दा रही।
बीच-बीच
में ऐसे कई मौके मिले जब नीलम प्रभा जी के गीत सुनने को मिले। उनकी कवितायें और
उनके साहित्यिक अनुभवों से दो चार होने का मौका मिला। उनकी एक कविता विशेष रूप से
याद रह गयी- इमरोज़ मुबारक हो! अमृता जी। शिविर में दो बार सुनी राजेन्द्र उपाध्याय
जी की कविता ‘ताला’ ने भी सबको आनंदित किया।
उषा
जी का स्नेह पूरे शिविर भर बना रहा। एक क्षण के लिए भी कभी नहीं लगा कि हम सभी
इतने वरिष्ठ लेखिका के सानिध्य में है।
कुल
मिलाकर एक अविस्मरणीय अनुभव रहा परिवर्तन का प्रवास। पात्र मिले या नहीं ये अलग
मुद्दा हो सकता है। उनके बारे में,
गाँव के बारे में कितनी समझ बनी इसके बारे में भी अलग से बात हो
सकती है। लेकिन परिवर्तन के द्वारा हिन्दी साहित्य के लिए यह पहल स्वागत योग्य है।
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