'Poor Economics for Kids' की प्रस्तावना
(मैंने 2010 में कालीन बनाने वाली एक कंपनी में 'प्रोडक्शन
मैनेजर' के रूप में काम करते हुए डेवलपमेंट के क्षेत्र में अपना
सफर शुरू किया था। भारत के कई राज्यों (राजस्थान, ओडिशा,
गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार,
झारखंड और नागालैंड) के दूरदराज के इलाकों में कालीन बुनकरों के
गाँवों में काम के सिलसिले में कारीगरों से मेरी मुलाकात हुई। इस दौरान, मैंने उनके सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को गहराई से समझा। प्रबंधन की पढ़ाई
के बाद, यह पहला मौका था जब मैंने किताबी बातों को असल जीवन
में अनुभव किया था। उस दौरान प्रो0 सी0के0 प्रह्लाद की एक किताब ‘Fortune
at the bottom of Pyramid’ हमेशा मेरे साथ रहती थी। प्रो0 प्रह्लाद ने उस किताब में ‘प्रीमियम पॉवर्टी’
का जिक्र किया था, यानि एक अत्यधिक गरीब दैनिक दिनचर्या की किसी वस्तु के खरीद में
सामान्य लोगों की तुलना में अधिक यानि प्रीमियम मूल्य चुकाता है। जब भी मैंने अपने
गाँव की मुसहरटोली की किसी महिला को 2 या 3 रुपये का सरसों का तेल खरीदते देखा, तो मुझे प्रो.
प्रह्लाद की बात एकदम सटीक लगी। उस समय, 40 रुपये किलो सरसों
के तेल के लिए वह महिला किश्तों में कम से कम सौ रुपये तो देती ही थी। बाद में,
यूएनडीपी के साथ पंचायती राज के विकेंद्रीकरण पर आधारित योजनाओं पर
काम करते हुए, मैंने इन मुद्दों को और गहराई से समझा और उन
पर काम करने की कोशिश की। शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हुए ऐसे कम ही मौके मिले, जब इस तरह के विषयों पर अपनी समझ बनायी जाए।
पिछले वर्ष एक
कार्यक्रम के सिलसिले में वरिष्ठ कवि एवं लेखक अरुण कमल से फोन पर बाल साहित्य को लेकर
चर्चा हो रही थी। उस चर्चा में अरुण कमल ने द हिन्दू में प्रकाशित एक समीक्षा के बारे
में बताया जो बच्चों की एक किताब ‘Poor Economics for Kids’ के बारे में थी। उस चर्चा
के बाद इस किताब को पढ़ने का संयोग बना। अर्थशास्त्र और समाज के कुछ अनछुए पहलुओं पर
एक बार और विचार करने का यह मौका था। पिछले कुछ महीनों में यह पिक्चर बुक कई बार पढ़
चुका हूँ।
नवनीत नीरव )
प्रस्तावना
आर्थिक विकल्प, जैसा कि आप में से कई लोग निश्चित रूप से जानते हैं, सीधे तौर पर
इस बात से जुड़े हैं कि हम पैसा कैसे कमाते हैं और उसे खर्च करने के लिए किस तरह
के निर्णय लेते हैं। अर्थशास्त्र हमें यह समझने में मदद करता है कि लोग आर्थिक
निर्णय क्यों लेते हैं और उन निर्णयों के परिणाम क्या होते हैं। 10 साल से भी
पहले, एस्थर
डुफ्लो और मैंने "पुअर इकोनॉमिक्स" नामक एक किताब लिखी थी, जो इस बारे
में थी कि यह सब अत्यधिक गरीब लोगों के जीवन में कैसे घटित होता है।
अत्यधिक गरीब वे लोग हैं जिनके
पास एक दिन में अपनी जरूरत की हर चीज - भोजन,
कपड़े, परिवहन, दवाइयाँ और
बहुत कुछ - के लिए अधिकतम ₹50
खर्च करने के लिए होते हैं। इसे लिखते हुए यह जानकर मुझे झटका लगा कि दिल्ली
या कोलकाता में एक आम भेलपुरी की प्लेट की कीमत भी उस रकम से ज्यादा है, जो गरीबों के पास पूरे दिन के खर्च के लिए होती है। डेयरी मिल्क की एक बार
की कीमत लगभग ₹80
है और यह किताब जो आप पढ़ रहे हैं,
उससे कई गुना अधिक है। अत्यधिक गरीबी में रहने वाले लोगों की संख्या वर्ष 2000 में 1.5 बिलियन थी, जो घटकर अब
लगभग 600 मिलियन रह गयी है, बावजूद इसके
यह संख्या बहुत बड़ी है।
"पुअर इकोनॉमिक्स"
गरीबों के आर्थिक जीवन के बारे में है। हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि वे कैसे
सीमित संसाधनों में अपना जीवन चलाते हैं, भोजन और कपड़े जुटाते हैं, अपने बच्चों को शिक्षित करते हैं, और अपने परिवारों
को स्वस्थ रखते हैं, जबकि उनके पास पैसों की कमी होती है,
शिक्षा का अभाव होता है, और वे उन सभी
सुविधाओं से दूर होते हैं जिन्हें हम सामान्य मानते हैं, जैसे
कि अस्पताल, बाजार और ऑफिस।
हम यह भी देखते हैं कि उनकी पूरी
कोशिशों के बावजूद, उनकी योजनाएँ अक्सर असफल क्यों हो जाती
हैं। कभी-कभी, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उनके सामने आने
वाली कठिनाइयाँ बहुत बड़ी होती हैं। सोचिए कि एक छोटी दुकान का क्या होता है, जब बगल में एक बड़ा सुपरमार्केट खुलता है।
कभी-कभी, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि समस्याएँ हर तरफ से आती रहती हैं। आपने भी इसका
अनुभव किया होगा, जैसे कि जब आप परीक्षा की तैयारी कर रहे थे,
और आपके छोटे भाई-बहन लड़ रहे थे, और आपके
माता-पिता चाहते थे कि आप अपना कमरा साफ करें क्योंकि कुछ खास मेहमान चाय पर आ रहे
थे। वास्तव में, गरीबों के जीवन में यह बहुत अलग तरह से काम
करता है। उदाहरण के लिए, उन्हें स्कूल की फीस तभी भरनी पड़
सकती है जब उन्हें दादाजी को डॉक्टर के पास ले जाना हो और खाना पकाने की गैस भी
खत्म हो गई हो, और उनके पास इन सभी चीजों के लिए पर्याप्त
पैसे न हों।
कभी-कभी, ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि किसी ने भी गरीबों को यह बताने की तकलीफ
नहीं उठाई कि सिस्टम कैसे काम करता है, उनके अधिकार क्या हैं,
सवाल पूछने के लिए किससे संपर्क करना है, और
जरूरत पड़ने पर किससे शिकायत करनी है।
इसे समझना बहुत ज़रूरी है
क्योंकि दुनिया में गरीबों के बारे में बहुत सी बातें ग़लत सोच पर आधारित होती हैं, जो यह नहीं समझतीं कि गरीब होना कितना मुश्किल है और इसलिए उन्हें उनकी
समस्याओं के लिए दोषी ठहराती हैं। असल में, लोग अक्सर यह मान
लेते हैं कि गरीब असफल लोग होते हैं जिनमें अपनी मदद करने की क्षमता नहीं होती।
यह बिल्कुल ग़लत धारणा है। हमने
अपना जीवन गरीबों के साथ काम करते हुए बिताया है ताकि हम उनके जीवन को बेहतर बनाने
के तरीके सीख सकें, और हमारा अनुभव यह है कि गरीब निष्क्रिय
नहीं होते हैं - वे खुश भी होते हैं, दुखी भी, चिंता भी करते हैं, सपने भी देखते हैं, कोशिश भी करते हैं, संदेह भी करते हैं, रोते भी हैं, और जश्न भी मनाते हैं - बिल्कुल हम सभी
की तरह।
वे हमेशा सफल नहीं होते हैं, और हममें से अधिकांश (मैं भी शामिल हूँ) भी उनकी जगह होते तो मुश्किलों का
सामना करते: उनके सामने आने वाली चुनौतियाँ बहुत कठिन हैं। इसलिए, गरीबों की जुझारू भावना का सम्मान करते हुए, हमें यह
नहीं मान लेना चाहिए कि वे हमेशा अपनी समस्याओं को खुद सुलझा सकते हैं।
कुछ लोग अपनी समस्याओं से खुद
निपट लेंगे, लेकिन दूसरों को सरकार और समाज की मदद की ज़रूरत होगी। उनकी
समस्याओं को समझने से मदद बेहतर तरीके से दी जा सकेगी। इस विषय पर जानकारी जुटाने
के दौरान, हमने दुनिया भर के कई लोगों से मुलाक़ात की,
जिन्होंने अपनी कहानियाँ हमारे साथ साझा कीं। 'पुअर इकोनॉमिक्स' लिखते समय, हमने
सबसे ज्ञानवर्धक कहानियों का चयन किया। हमें यह जानकर ख़ुशी हुई कि हमारे वयस्क
पाठकों को वे बहुत पसंद आईं।
यह किताब उन्हीं कहानियों को एक
साथ लाती है, जिन्हें एस्थर ने अपनी कल्पना से एक रंगीन
दुनिया में बदल दिया है। शेयेन ओलिवियर के मनमोहक चित्रों के ज़रिए, आप नीलू और उसके दोस्तों की ज़िंदगी को महसूस करेंगे, कभी उदास तो कभी खुश, कभी मेहनत करते हुए तो कभी
नाकाम होते हुए, कभी गुस्से में तो कभी निराश, लेकिन हमेशा खुश रहने की कोशिश करते हुए। आप एक ऐसी दुनिया का अनुभव
करेंगे जो हमारे बहुत करीब भी है और बहुत दूर भी, एक ऐसी
दुनिया जो अलग भी है और जानी-पहचानी भी, एक ऐसी दुनिया जो
हमें यह दिखाती है कि हम सब एक जैसे हैं।
अभिजीत बनर्जी
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