बच्चों के लिए नाटक : 'पक्षी और दीमक'

विश्व रंगमंच दिवस विशेष 


एक पुरानी डायरी के अनमने पन्ने


जोधपुर

27 मार्च 2018

11 बजकर 39 मिनट अपराह्न



पिछले साल सितम्बर महीने में जोधपुर की एक घटना देश की प्रमुख ख़बरों के साथ हेड लाइन बनी थी। जोधपुर में 17 साल की एक लड़की ब्लू-ह्वेल गेम की वजह से कायलाना झील में कूद गई थी। हालाँकि उसे बचा लिया गया था।ऑनलाइन चैलेंज के रूप में रूस से शुरू हुए इस मोबाइल गेम के कारण दुनिया में करीब सौ लोगों की मौत हो चुकी है।जिसकी चपेट में भारत के किशोरवय बालक-बालिकाएं भी हैं। 2009-10 में प्रोजेक्ट के सिलसिले में मैं देहरादून में था।एक रात डिनर के बाद सड़क पर दोस्तों के साथ टहल रहा था।अचानक एक 10-11 साल का लड़का मेरे पास आया और मुझसे पैसे मांगने लगा। वह लगभग गिड़गिड़ा रहा था। मैंने अपनी जेब से उसे कुछ रूपये देने चाहे थे। तभी एक छोटी सी बच्ची जो उस लड़के के पीछे से आई थी ने कहा- ‘इसे पैसे नहीं देना, यह व्हाईटनर पीएगा।‘ यह सुनकर मैं सन्न रह गया था।

वर्तमान समय में नशाखोरी एक बड़ी समस्या के रूप में उभरी है। युवाओं के साथ-साथ नाजुक आयु वाले किशोरों में तेजी से पनपती नशाखोरी उनके वर्तमान के साथ भविष्य को भी चौपट कर रही है। यह वही किशोर हैं जिन्हें भविष्य की धरोहर माना गया है। जो समुचित संरक्षण और आवश्यक मार्गदर्शन के अभाव में पूरी तरह भटक गए हैं। नशे से प्राप्त क्षणिक आनंद के लिए अपनी ही जड़ में जिस तरह ये विष घोल रहे हैं वह आने वाले दिनों के लिए बड़े खतरे का संकेत है। और सरकारें हैं कि वह राजस्व मोह में पड़ी हुई है। संचार के बढ़ते प्रयोग और उपभोक्तावादी संस्कृति ने आज के समय में हर चीज की उपलब्धता सुनिश्चित की है।विकास एकांगी कभी नहीं रहा।उसके दुष्परिणाम भी साथ आते हैं। इस तरह के विकास ने परिवार (समाज की इकाई) जैसी संस्था की संरचना पर कमोबेश चोट किया है। कई बार किशोर और युवा वर्ग के साथ हो रही परेशानियों को दुर्घटनाओं को परिवार तक के लोग नहीं जान नहीं पाते।

इस तरह भविष्य की वृतियों को ध्यान में रखते हुए मुक्तिबोध ने दशकों पहले ‘पक्षी और दीमक’ कहानी की रचना की थी। हिंदी के प्रसिद्ध कहानीकार उदय प्रकाश ने इस कहानी के बारे में लिखा है कि यह कहानी अपनी अनगढ़ता के बावजूद महत्वपूर्ण है।यह पंचतंत्र या इसप की सूत्र कथाओं की तरह हैलेकिन मौजूदा दौर में भोगवादी (हेडोनिस्ट या फिलिस्टिनिस्टिक कंज़्यूमरिज़्म) मानसिकता की वजह से अपनी स्वतंत्रता खोकर ग़ुलाम हो जाने की प्रवृत्ति पर यह एक स्मरणीय टिप्पणी है।



आज विश्वरंगमंच दिवस (27 मार्च 2018) पर जोधपुर का सूचना केंद्र गजानन माधव मुक्तिबोध की बाल कहानी ‘पक्षी और दीमक’ के मंचन का गवाह बना। ज्ञातव्य है कि यह वर्ष मुक्तिबोध की जन्मशती वर्ष है।इस कहानी का नाट्य रूपांतरण और निर्देशन डॉ० विकास कपूर का था।प्रस्तुति आकांक्षा संस्थान, जोधपुर एवं उसके दो दर्जन युवा प्रतिभाशाली कलाकारों की थी।अपने निर्देशकीय वक्तव्य में निर्देशक नाट्य मंचन के ‘प्रदर्शन’ की जगह ‘प्रयोग’ शब्द को तरजीह देने की बात मंच से कही थी।साथ ही यह बात भी कि असली रंगमंच एकालाप नहीं संवाद मांगता है।

हिंदी में बाल नाटकों ने एक लम्बी यात्रा तय की है।इसे विडम्बना ही कहेंगे कि जिस देश को दो हजार से भी ज्यादा पुरानी नाट्य परम्परा का गौरव प्राप्त होवहां पर अच्छे बाल नाटकों की तलाश आज भी बड़ी कष्टप्रद है। कभी बाल नाटक उपदेशात्मक ढंग से बच्चों को कुछ सीखाने का जरिया हुआ करते थे।पर पिछले कुछ दशकों में बाल नाटक शिल्प और कथ्य दोनों के लिहाज से बदले हैं।उनमें अतिरिक्त गंभीरता को तोड़ता हुआ खिलंदड़ापन आया है और बड़ी से बड़ी बातों को खेल-खेल में कहने का कौशल और दोस्ताना अंदाज भी।डॉ० विकास कपूर ने मुक्तिबोध की कहानी ‘पक्षी और दीमक’ के नाट्य रूपांतरण में इस बात का ख्याल रखा है।

पूरे नाटक में दो कहानियाँ ‘पक्षी और दीमक’ तथा ‘किशोर लड़के की कहानी’ समांतर चलती हैं तथा अंतिम अंक में मिल जाती हैं।निर्देशक ने पूरे कथानक को चार स्तरों पर प्रयोग के रूप में रखा है और सफ़ल भी रहे हैं।‘पहली तो मूल कहानी जिसमें पक्षी दीमक बेचने वाले से अपने पंखों के मोल पर दीमक खाने के लिए लेता है।दूसरे में एक किशोर जो टेनिस का खिलाड़ी है और नशे बेचने वाले के बहकावे में आकर ख़ुद को नशे के गिरफ्त में डाल देता है।तीसरा भोपा और भोपी का किरदार जो बीच-बीच में सूत्रधार का काम करते हैं और पूरे नाटक की मजबूत कड़ी के रूप में उभरते हैं।चौथा कोरस की टीम का जिन्होंने लय और ताल के साथ ‘पक्षी और दीमक’ कहानी को बहुत सरस कविता के रूप में प्रस्तुत कर नाटक को गति दिया और सन्देश को गाढ़ा करने में महती भूमिका अदा की।

एक बानगी देखते हैं

गाड़ीवाला जालिम है रोज़ चला आता है

दीमक के बदले वो पंख ले के जाता है

अब तो जो हाल है वो कहा भी न जाए रे

उड़ना तो छोड़ो अब चला भी न जाए रे..।

आधे घंटे की प्रस्तुति में नाटक ने साहित्य की कई विधाओं को आत्मसात किया हुआ था।जिसमें कहानी के तत्व तो थे ही।बाल कविता की भाषा और भंगिमाएँ भी थीं।इसके अलावा अभिनय और संवाद का जादू तथा आवाज के उतार-चढ़ाव और सरस लोक भाषा के साथ मिलकर उसे समग्र रचना बना दिया। जिसकी वजह से एक गंभीर सन्देश को बहुत सरसता से दर्शक दीर्घा तक पहुंचाया जा सका।बच्चों के इच्छा संसार और सक्रिय महत्त्व को समझने के लिहाज से इस तरह के नाटकों का महत्त्व निर्विवाद रहेगा।

‘पक्षी और दीमक’ एक अच्छी प्रस्तुति थी।पात्रों में कोरस के सदस्यों, दीमक वाला, लड़का, गाड़ीवान, तीनों पक्षी, मोटर साईकिल वाला आदि ने अपनी भूमिका अच्छे से निभाई।भोपा-भोपी का किरदार नाटक की उपलब्धि रहा।उन किरदारों को और भी विस्तार दिए जाने की सम्भावना दिखती है।वेश-भूषा एवं सज्जा भी पात्रों के लिहाज से उम्दा रहा।बाल-नाटक के लिहाज से मंच सज्जा पर काम किए जाने की जरूरत महसूस होती है।कोरस की टीम को एक पंक्ति में मंच पिछले हिस्से में बिठाये जाने से मंच पर जगह बन सकती थी।जिससे गाड़ी वाले को उसके अभिनय में सहूलियत होती।हालाँकि यह इस नाटक की दूसरी प्रस्तुति ही थी। इसलिए इंगित सुधार आगामी मंचनों में किये जा सकते हैं। फिर भी ‘पक्षी और दीमक’ के आधे घंटे के इस मंचन को अपनी कसी हुई प्रस्तुति और टटकेपन की वजह से याद किया जाना चाहिए।

पक्षी और नाटक देखने के दौरान यह महसूस हुआ कि यह आज के बच्चों की जीवन-स्थितियों से सीधे-सीधे जुड़ता है। चूँकि आज का जीवन बहुत जटिल है और बच्चों को भटकाने वाली चीजें भी तमाम हैं। इसलिए अभी ऐसे दर्जनों बाल नाटक मंचित किए जाने की जरूरत है, जो अलग-अलग ढंग से आज के बच्चों को नितांत अपने-से लगें।इस लिहाज से बाल-नाटकों के विशाल कैनवास पर अभी काफ़ी कुछ छूटा हुआ है।ख़ुशी की बात यह है कि हमारे नाटकार ने बड़ी गंभीरता से इस बात को प्रकाश में लाने की कोशिश की है और इस बात को कहने के लिए विश्व रंगमंच दिवस से बढ़िया अवसर क्या हो सकता था? मेरे विचार से वर्तमान समय में ‘Learning to be’ और ‘Learning to live together’ के लिए शिक्षण संस्थानों में नाट्य शिक्षा की वकालत की जानी चाहिए और ‘पक्षी और दीमक’ सरीखे नाटकों का मंचन किया जाना चाहिए।क्योंकि नाटक साहित्य विधा से अधिक मंचीय विधा है।

 पक्षी और दीमक कहानी


(आलेख में प्रयुक्त चित्र सांकेतिक हैं। Source - Google)

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