नवीन सागर के दो कविता संग्रह



कुछ महीने पहले बाल पत्रिकाओं के पुराने अंकों को घंटों उलटते -पलटते चकमक पत्रिका का एक पुराना अंक (मई, 2000) हाथ लगा।  अंदर के एक पृष्ठ पर सहसा मैं ठिठक गया। पन्ने पर कवि नवीन सागर को श्रद्धांजलि दी गई थी। शीर्षक था ‘अलविदा नवीन के सागर !’ उस नोट में चकमक पत्रिका में छपी नवीन सागर की पहली कविता (जो अगस्त 1989 में छपी थी ) का जिक्र था। बच्चों के लिए प्रकाशित उनके पहले कविता संग्रह ‘आसमान भी दंग’ (संभावना प्रकाशन) और कहानी संग्रह ‘उसका स्कूल’ का जिक्र भी था। साथ ही दो कविताएं ‘गिरा पानी गिरा पानी’ और ‘रानों नाच रही है’ छपी थीं। ‘रानों नाच रही है’ कविता हस्तलिखित थी और साथ में कवि का बनाया हुआ चित्र भी लगा हुआ था। नवीन सागर को मैंने उनकी चुनिंदा कविताओं के माध्यम से ही जाना है। इस नोट ने उनके बारे में कई महत्वपूर्ण जानकारियों को साझा किया था। इस नोट से ही एक और नयी बात जानने को मिली कि नवीन सागर चित्र भी बनाते थे। जो लोग नवीन सागर के समय में रहे होंगे, उनके पास अवश्य ही ये जानकारियाँ होंगी।

(साभार : चकमक पत्रिका, मई 2000)

पत्रिकाओं के बारे ऐसी अनेक बातें हैं, जिसकी वजह से शुरुआत से ही पाठकों के लिए पत्रिकाओं की भूमिका अहम हो जाती है। ये बात अलग है कि आज के समय में नाममात्र की पत्रिकाएं इस उद्देश्य को पूरा करती दिखाई देती हैं। बहरहाल नवीन सागर के बारे में थोड़ी और जानकारी जुटाने की कोशिश में एक और किताब खरीद कर मंगाई, जिसमें लेखक ने नवीन सागर के साथ बिताए कुछ वर्षों को उनके निधन के बाद याद किया है (‘तुम कहाँ हो नवीन भाई, लेखक- प्रकाश मनु)। उस कहानी में एक बात जो पढ़ते हुए मेरे जेहन में अटक गई थी कि ‘वह आजकल बच्चों के लिए कविताएं लिखने लगा है’। ये बात इस तरह से उस समय कही जाती थी, जैसे प्रतिनिधि साहित्य के लेखक का बाल साहित्य लिखना जैसे खुद का डी-क्लास करना हो।

बहरहाल इस आलेख के माध्यम से मैं उनके दो कविता संग्रहों पर बात करने की कोशिश करूंगा, जिसमें उनकी बच्चों के लिए लिखित कविताएं संग्रहित हैं।

आज से कुछ एक दशक पहले तक नवीन सागर को उनकी कुछ कविताओं, मसलन ‘तुम भी आना’ ‘ दादाजी नाराज हैं!’ ‘बिल्ली तक न आती’ के माध्यम से ही मैंने जाना था। कुछ साल बीतते-बीतते उनकी सम्पूर्ण कहानियों का संग्रह (आइसेक्ट पब्लिकेशन, वर्ष 2021-22) और बच्चों के कविता संग्रह ‘तुम भी आना (वर्ष 2020-21)’ पढ़ चुका था। लेकिन इस नोट (जिसका जिक्र ब्लॉग की शुरुआत में हुआ है) में प्रकाशित जानकारी ने कुछ नए सूत्र थमाए। उन सूत्रों को तलाशते हुए मैंने चकमक के तमाम पुराने अंकों को खंगाला जिसमें नवीन सागर की रचनाएं छपी थीं। ‘आसमान भी दंग’ कविता संग्रह तक भी इसी बहाने पहुँच पाया। जो सन 1989 में ही प्रकाशित हुआ था।


‘आसमान भी दंग’ कविता संग्रह में नवीन सागर की बच्चों के लिए लिखी कुल सोलह कविताएं प्रकाशित हैं (हालाँकि संग्रह की शीर्षक वाली कोई कविता संग्रहित नहीं है)। कवि ने समर्पण पृष्ठ पर लिखा है ‘सारे बच्चों के लिए’। इस संग्रह के इलस्ट्रेशन कैरन हेडॉक ने बनाए हैं।  कैरन मेरी प्रिय इलसट्रेटर्स में से एक हैं। उनके द्वारा बनाए गए ज़्यादातार चित्र जो श्वेत श्याम स्केच के रूप में बने होते हैं,  बहुत बरीकी से मानवीय संवेदनाओं को उभारते दिखते हैं। चाहे वह प्रेमचंद की कहानी सद्गति पर बना इलस्ट्रेशन हो, या नागार्जुन की कविता ‘अकाल और उसके बाद' के चित्र आदि। वे बच्चों के जीवन में चित्रण की अहमियत को भी समझती हैं (संदर्भ : बच्चों के चित्र क्या बताते हैं हमें, संदर्भ पत्रिका, जनवरी-फरवरी 1997)। कैरन हेडॉक की शैली में बने इलस्ट्रेशन, वर्तमान समय में विकसित हो रही बच्चों की किताबों में कम ही दिखाई देते हैं। ‘आसमान भी दंग’ संग्रह में इनके द्वारा चित्रित दो दर्जन से अधिक इलस्ट्रेशन हैं। जो सरल होने के बावजूद कविताओं के प्रभाव बढ़ाने वाले हैं। संग्रह का कवर पृष्ठ बहुत आकर्षक बना है।

अब बात करते हैं इस संग्रह की कविताओं पर। चूंकि इस संग्रह के प्रकाशन के साढ़े तीन दशक हो चुके हैं और कुछ कविताएं आज भी बच्चों और स्कूलों में बेहद लोकप्रिय हैं। नवीन सागर के नए कविता संग्रह ‘तुम भी आना’ में (जिसे इकतारा ने प्रकाशित किया है) 13 कविताओं  को नए कलेवर के साथ शामिल किया गया है। इससे इन कविताओं और इनके प्रभाव का सहज अंदाजा तो हो ही सकता है। बहरहाल ‘आसमान भी दंग’ संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए विषयों का चयन, भाषा की रवानगी, सुंदर एवं मोहक बिम्ब-विधान, बाल सुलभता, फैंटसी, कल्पनाशीलता, हास्य और चुहल जैसी बातें सहजता से पाठक के मनोभावों को स्पर्श करती चलती हैं। इनसे गुजरते हुए लगता ही नहीं कि ये कविताएं साढ़े तीन दशक पहले लिखी गई हैं। बिल्कुल ताजी। एक बानगी देखते हैं,

सावन का झूला इस बार                                                              इतना बड़ा डालना

जिसमें समा जाए संसार

उस डाली पर

जो फैली है आसमान के पार

उस रस्सी का

कोई न जिसका पारावार

एक पेंग में मंगल ग्रह के द्वार

और दूसरा में

इकदम अंतरिक्ष के पार।    (सावन का गीत)

सावन के मल्हार की तरह लगती है यह कविता। एक बच्चे की कल्पना जिसमें समूचे संसार (ब्रह्मांड) को समेट लेने की ख्वाहिश है। इसे पढ़ते हुए राजेश रेड्डी का एक शेर याद आता है,

दिल भी इक ज़िद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह

या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या कुछ भी नहीं

ये तो हर बच्चे की ख्वाहिश है। 'किन्तु परंतु' जैसे पैमाने तो बड़ों के लिए होते हैं, किसी चुनाव के लिए। बच्चे की दुनिया में तो सभी शामिल हैं। बिना किसी भेदभाव के। ‘पारावार’ शब्द का बड़ा ही सटीक प्रयोग कवि ने इस भाव को सघन और गहरा बनाने के लिए किया है। 

‘नदी चढ़ी है आना’ संग्रह की सबसे सुंदर और प्रभावी रचना है। भाषा और बिंबों का ऐसा प्रयोग विरले ही देखने को मिलता है। कविता पढ़ते हुए लगता है कि समूचा दृश्य आँखों के सामने उपस्थित हो गया हो। एक ऐसे सुंदर समय की कल्पना, जो कालातीत है। और ऐसे सुंदर समय में सबको बुला लेने की, उसे दिखा देने की, निस्वार्थ भाव से सबकुछ साझा कर देने की अनूठी चाह।

नदी चढ़ी है आना।

तुम भी आना तुम भी आना  

आना तुम भी आना।

आए बादल घने उतर के

उनसे हाथ छुआना

हवा गा रही तुम भी गाना

गाने में खो जाना।       (तुम भी आना)   

 उसी तरह एक और कविता देखते हैं, जो चकमक पत्रिका में प्रकाशित नवीन सागर की पहली कविता भी है।

अरे! गिरने को है पानी!

नंगे निकल पड़े गलियों में

करने शैतानी।

बूँदें गिरी अंधेरा छाया

 बिजली चमकानी

इतनी ठंडी हवा सिहर के

नानी चिल्लानी

बुलाओ बच्चों को भीतर

गिरेगा जोरों का पानी

ना मानी बच्चों ने

दौड़े उनकी ना मानी।   (गिरा पानी गिरा पानी)

कविता पढ़ते हुए मानों सबकुछ गोचर हो जाता है। मूसलाधार बारिश, सिहराती ठंड, जामुनी बादलों से अंटा हुआ आसमान, भीगते-डूबते सड़क, तालाब और खुले आसमान में खड़े साँड़ जैसे पशु। गलियों में पानी की धार जिसे रोकना, बांधना मुश्किल है। ठीक उसी तरह दौड़ते भागते अल्हड़ नंगे बच्चे। यह कविता एक स्केच की तरह ही तो लगती है। बच्चों को नानी रोक रही है, लेकिन बच्चे कहाँ उनकी बात मनाने वाले। कविता के अंत में एक शरारत भरी चुहल है नानी की। बारिश में नहाकर लौटते बच्चों को लगता है कि नानी डाँटेंगी। पर नानी कहती है मुझे सभी साथ ले लेते। भोलू कहता है कि तुम बूढ़ी हो नानी। इतनी दूर जाकर वापस कैसे आती। नानी तुनक कर कहती है, ‘तैर कर!’ कविता खत्म होते ही एक सहज मुस्कान पाठक के चेहरे पर तारी हो जाती है।

इसी तरह ‘टालूराम’ एक शरारती अंदाज में लिखी गई, खास प्रवृति की ओर इशारा करती हुए मजेदार कविता है। पूरी कविता जैसे अपने आप में ठहाका है। कम ही कविताएं इतनी मस्ती के अंदाज में बरती जाती हैं।

करना है दस दिन में काम

हाँ! हाँ

बोले टालू राम।   (टालूराम)

सहज हास्य, चुलबुलापन, एक नाटकीयता, बाल सुलभ मस्ती ये सारी बातें नवीन सागर की कविताओं में सिग्नेचर की तरह दिखाई देती हैं। भोलू का सपना, लौट के बुद्धू, बैठे वे दम साध, दोस्त जैसी कविताओं का स्वर यही है। जो पाठक को गुदगुदाती हैं।

बच्चों की सामान्य चिंताएँ क्या हैं? इस सवाल के सहज उत्तर तो यही होंगे कि चिड़ियों की, बिल्ली की, पेड़-पौधों की, कुछ दोस्तों से जुड़ी आदि। नवीन सागर ने इन्हीं बातों में अपनी कविताओं के विषय चुने हैं। जो सामान्य बच्चों की चिंताएं तो जरूर हैं, लेकिन हैं वैश्विक चिंताएं भी।

जैसे एक कविता है ‘दादाजी’

दादाजी नाराज़ हैं

रोज़ रहा करते हैं वे क्या आज हैं!

पता नहीं चल पाता है कि वे किससे नाराज़ हैं

बच्चों से नाराज़ हैं की बूढ़ों से नाराज़ हैं..   (दादाजी नाराज़ हैं)

कविता में एक चिंता अपने घर के बुजुर्गों के प्रति, एक नजर उन कोनों में जो आजकल अप्रासंगिक होती जा रही हैं। जो हैं, अगर वे नाराज इन बातों से हैं तो उनकी नाराजगी का खयाल करने की कोशिश। नाराजगी से ज्यादा अकेले कर दिए जाने से उपजी हुई चिढ़/खीज। कविता में दादी के चले जाने के बाद दादाजी का अकेलापन बढ़ गया है। परिवार की उनके प्रति जरा सी उपेक्षा नाराजगी पैदा करती है, जो की स्वभावित भी है। बहुत संजीदा एवं बारीक सी बात कवि इस कविता में सहजता से लेकर आए है।  इस बात को कहते हुए  कि

कहाँ चले ऐ बच्चों उनको साथ लो

अपनी नरम हथेली में अब उनका हाथ लो

ले जाओ उन बगीचे के फूलों में

अपने साथ झुलाओ उनको झूलों में

फिर देखो लड्डू की चोरी करने में

साथ तुम्हारे वे भी चल पद सकते हैं

हँसते हो जिस तरह

उस तरह वे अभी भी हँस सकते हैं

चूको मत वे कल न रहेंगे आज हैं

भूल जाओ की दादाजी नाराज़ हैं।   (दादाजी नाराज़ हैं)

 

‘तुम हो कौन! मैं हूँ कौन!’ ‘बगीचा फैला मीठू का’ आदि कविताएं पेड़-पौधों की दुनिया, पर्यावरण, विकास के दुष्प्रभावों जैसे विषयों पर सहजता से बात करती हैं। मुद्दों पर बात करती कविताएं और भी हैं। ‘बिल्ली तक न आती’ कविता को बदलते सामाजिक ढांचे पर बाल मन का सहज प्रतिबिंब कह सकते हैं। सह-जीवन, सह-आतित्व जैसी बातों की तलाश करती कविता, जो कभी सामाजिक जीवन के मजबूत स्तम्भ हुआ करते थे, अब तो हर ओर से खुद को संपृक्त कर लेने की चेष्टयाएं दिखाई देती हैं। कविता में एक बच्ची खुद के सायास ही अकेले कर दिए जाने को लेकर कुछ सवाल पूछ रही है,

अम्मा खेलें कहाँ बताओ

गालियां सूनी द्वार बंद हैं

जिधर जहाँ भी जाओ

मिले न कोई संगी साथी

दिखे न घोड़ा हाथी

कैसी बस्ती शाम हुई पर

हुई दीया न बाती,

आसमान सूना

पतंग सीलन में दीमक खाती

जालीदार बना दी खिड़की

बिल्ली तक न आती।          (बिल्ली तक न आती।)

 

बच्चों के बीच इस तरह की बातें सहज हैं। भले ही इस कविता को पढ़ने वाले सोचें कि ऐसी बात कैसे करेंगे वे। इस कविता को पढ़ते मेरे जेहन में बचपन की एक बात कौंध गई थी, जब एक सहपाठी ने अपने घर में बनने वाली खिड़की के डिजाइन को लेकर चर्चा की थी ‘कि लोहे की ग्रिल का डिजाइन इस तरह से उसके पापा करा रहे हैं, कि चिड़िया घर के अंदर न आ पाएं और घोंसले वगैरह न लग पाएं।

कोरोना के दौरान लॉकडाउन में लाइब्रेरी और बाल साहित्य पर ऑनलाइन आयोजित कार्यशालाओं में अक्सर मैं इस कविता को पढ़कर चर्चा कराता था। अधिकांश लोगों को यही लगता था कि ये सामयिक कविता है जो इस लॉकडाउन में लिखी गई है।

इस संग्रह की पहली कविता ‘माँ का गीत’ एक प्यारी सी लोरी है।

पड़े हैं जहाँ-तहाँ अँधियारे

नींद कहीं से बुला रही है।   (माँ का गीत)

एक सुंदर कविता संग्रह जो वर्तमान समय में पाठकों के बीच अनुपलब्ध सा है। हालाँकि खालीपन की भरपाई इकतारा ने 2020 में ‘तुम भी आना’ शीर्षक से नवीन सागर की नई 15 कविताओं, एलन शॉ के द्वारा बनाए गए आकर्षक इलस्ट्रेशंस, नेचुरल शेड आर्ट पेपर पर सुंदर छपाई और कलेवर के साथ किया है। जो कि प्रकाशन के वैश्विक मानदंडों के अनुसार उत्कृष्ट कोटि का है। इस भव्य से कविता संग्रह में कुल 28 कविताएं हैं। ज्ञातव्य है कि यह संग्रह नवीन सागर के निधन के दो दशक के बाद आया है। अपने प्रिय कवि के प्रति प्रेम प्रकट करने का इससे सुंदर तरीका क्या हो सकता है भला? एलन शॉ ने बड़े इत्मीनान से पेंटिंग सरीखे चित्रण से इसे उतने ही प्यार से संवारा भी है। यह बच्चों के सबसे प्यारे कवि को एक ईमानदार, विनम्र और सच्ची श्रद्धांजलि है।

जिन नई पंद्रह कविताओं को इस संग्रह में  शामिल किया गया है वे हैं ‘आप कौन हैं? गुड्डो कहाँ गई? सपने में चलते-सपने, उड़ो-उड़ो-उड़ो, देख आयें अपरंपार, इच्छा, सपनों से मालामाल, मटकू की शैतानी, तुम ऐसे क्यों हो?, राजा गोप गुपग्गम दास, पानी बरसा, तभी कहीं से, ऐसा कैसा, नजर आते हो मेले में और थामे होंगे मेरा हाथ। पहले संग्रह से जिन 13 कविताओं को इस संग्रह में शामिल किया गया है उनमें भी संपादकीय टीम ने मामूली लेकिन सार्थक सम्पादन किया है। जिससे इस संग्रह की कविताओं को त्रुटि मुक्त रखा जा सका है। साथ ही कवि के कविता प्रयोग और उन्हें बरतने को लेकर भी यह संग्रह अगले स्तर पर ले जाता है।

एक तरफ ‘मटकू की शैतानी’ और उड़ो-उड़ो-उड़ो लंबी कविताएं हैं तो इच्छा जैसी छोटी लेकिन प्रभावी कविता भी शामिल है। ‘आप कौन हैं’ दूब घास पर लिखी प्रश्नोंत्तर शैली में लिखी कविता है, जो अपने बिम्ब विधान और हास्य पुट से चकित करती है। एक बानगी देखते हैं

हरे रंग के हरमल हैं?

नाहीं!

कलकत्ते के कलकल हैं?

नाहीं!

आप कौन है भुजबल हैं?

नाहीं,

तो क्या हैं क्या खटमल हैं?

नहीं! नहीं!                 (आप कौन हैं)

इसी तरह ‘राजा गोप गुपग्गम दास’ एक टंग ट्विस्टर की तरह लिखी गई मजेदार कविता है।  

‘गुड्डो कहाँ गई?’ गुड्डो की अपनी दुनिया और उसके उस चयन के प्रति सम्मान की बात करती है। भले ही उसके अपने चयन को लेकर तमाम किन्तु-परंतु होंगे, पर वह है तो उसकी इच्छा। तो क्यों न ऐसे सवालों को फिलहाल विराम दे दिया जाए।

गुड्डो कहाँ गई!

जाने भी दो जाने भी डो गुड्डो जहाँ गई

वहाँ गई वह जहाँ गई वह कहाँ गई होगी

जहाँ गई होगी क्या सचमुच में वहाँ गई होगी!

पूछो इस चिड़िया से पूछो,

गुड्डो कहाँ गई!

जाने भी दो जाने भी दो गुड्डो जहाँ गई।    (गुड्डो कहाँ गई!)

यह कविता ‘इच्छा’ कविता की पूरक कविता जैसी भी लगती है। दोनों कविताएं बालिकाओं के मन की बातें कहती हैं, एक स्वतंत्र जगह जहाँ उन्हें अपनी इच्छा का कुछ करने दिया जाए। जो कहीं न कहीं बाधित होता रहता है। इसी तरह की एक बात ‘थामे होंगे मेरा हाथ’ में भी आती है

बाबूजी का कुरता है

हवा चले तो उड़ता है

मैं उसमें घुस जाऊँगी

बादल में उड़ जाऊँगी

बाबूजी भी होंगे साथ

थामे होंगे मेरा हाथ                     (‘थामे होंगे मेरा हाथ’)

‘सपनों में चलते सपने’ एक गूढ़ कविता है। पीढ़ियों तक चलती हुई बातें। बीज का पौधा और फिर पेड़ बनना। बच्चे का बड़ा होना। फिर एक बच्चे का पिता होकर उस पेड़ को देखना जो अब एक पिता बन गया है। कितनी सुखद कल्पना है न। प्रकृति पर नवीन सागर ने बहुत सहज और स्वाभाविक कल्पनाशीलता के साथ अपनी लेखनी चलाई है। ये कविताएं सीधे मन के अंदर गहरे उतर जाती हैं।

‘उड़ो-उड़ो-उड़ो’ सचमुच कल्पनाशीलता का उड़ान लेती कविता है। जहाँ पीपी चिड़िया को  अपने घर में बुलाना चाहता है, चिड़िया कहती है कि घर में पेड़ नहीं, आकाश नहीं, फूल पत्तियां, दूर-दूरियाँ घास नहीं। इसके बाद वो पीपी के मन में उड़ान भरने का  स्वप्न बोती हैं। उसे अपने पंख उधार देते हुए बारम्बार उड़ने को कहती हैं।

‘देख आएँ ये अपरम्पार’ ‘उड़ो-उड़ो-उड़ो’ कविता की अगली कड़ी की तरह लिखी गई कविता है, जिसमें पीपी और चिड़िया फिर से उड़ने की बातें करते हैं। सीधा मंगल ग्रह पर जाने की बात।   

नवीन सागर की इन कविताओं की भाषा नरम और लचीली है। जिसे उन्होंने अलग-अलग तरीके से बरता है। किन्हीं दो कविताओं को लेकर दुहराव कहीं नहीं दिखता। इन कविताओं से गुजरते हुए कुछ ऐसे शब्दों से परिचय हुआ जो मेरे लिए नए थे, या जिनका प्रयोग मैंने कम ही किया है। मसलन ‘पूर (लौट के बुद्धू)’ ‘परसाल (उड़ो-उड़ो-उड़ो)’ ‘हरमल (आप कौन हैं!)’ आदि।

ये कविताएं लेखन और प्रयोग में भी सचमुच कविताएं ही हैं। उम्मीद हैं ये लंबे समय तक बच्चों के बीच पढ़ी-सुनी जाएंगी। प्रयोग में बनी रहेंगी। नवीन सागर की कुल ३१ कविताएं हम तक पहुंचाने के लिए प्रकाशकों संभावना प्रकाशन, हापुड़ (आसमान भी दंग) और इकतारा, भोपाल (तुम भी आना) का शुक्रिया।


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

'इल्म' में प्रोफेसर कृष्ण कुमार का व्याख्यान

पाठ की समझ बनाम पाठक की भूमिका

सबरंग खिलौने