बच्चों के लिए तीन असाधारण जीवनियाँ
भारतीय बाल साहित्य में बीते एक दशक में प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों के जीवन पर आधारित भारतीय चित्र-पुस्तकों की संख्या में वृद्धि हुई है, जो एक उत्साहजनक संकेत है। यह न केवल साहित्य की विधाओं में विविधता लाता है, बल्कि उन जीवनियों पर भी प्रकाश डालता है जिनके योगदान समाज में महत्वपूर्ण थे, लेकिन किसी कारणवश वे सामने नहीं आ पाए या केवल कुछ पीढ़ियों तक ही सीमित रहे।
पहली किताब 'वह फ़ोटो किसने खींची?' भारत की पहली महिला फोटो जर्नलिस्ट होमाई व्यारावाला के जीवन की कुछ घटनाओं पर आधारित एक चित्र-पुस्तक है। नन्दिता ड कूना द्वारा लिखित, प्रिय कुरियन द्वारा चित्रित और सारिका ठाकुर द्वारा हिंदी में अनुवादित यह पुस्तक वास्तविक घटनाओं से प्रेरित है, लेकिन इसे काल्पनिक रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह होमाई व्यारावाला के पूरे जीवन को नहीं, बल्कि उनके जीवन के एक अंश को दर्शाती है। कहानी में, हम 'परी' नामक एक युवा महिला फोटोग्राफर को देखते हैं, जो अपने काम में इतनी व्यस्त है कि कभी-कभी बुनियादी चीजें भी भूल जाती है। अपने करियर की शुरुआत में, वह चाहती है कि उसकी तस्वीरें अखबार में छपें, जिसके लिए उसे प्रति फोटो एक रुपया मिलेगा। वह उन पैसों से अपनी फोटोग्राफी के लिए और फिल्म रोल खरीदना चाहती है। पूरी किताब अपने लेखन और चित्रण में हास्य का पुट लिए हुए है जो इसके कहन को मजेदार बनाती है।
पुस्तक की पृष्ठभूमि 1930 के दशक का भारत है। चित्रकार ने पात्रों की वेशभूषा, रहन-सहन, तत्कालीन बंबई शहर और उसकी संस्कृति को कुशलतापूर्वक चित्रित किया है। आज के बच्चे शायद यह नहीं जानते होंगे कि फोटोग्राफ खींचना और प्रकाशित करना कभी कितना कठिन कार्य था। एक पृष्ठ पर डार्क रूम को दर्शाया गया है, जहाँ निगेटिव की धुलाई और फोटो को सुखाया जाता था। चित्रकार ने इसे दर्शाने के लिए आकर्षक रंग पट्टिका का चयन किया है। 1930 के आसपास, केवल श्वेत-श्याम फोटो ही बनते थे, इसलिए चित्रकार ने हर तस्वीर को श्वेत-श्याम रखा है। ये चित्रण पाठक को आसानी से अतीत में ले जाते हैं। इन चित्रों में न केवल सड़कों पर होने वाली गतिविधियाँ, जैसे मूंगफली विक्रेता, मछुआरे, गुब्बारे विक्रेता, तांगे और ट्राम, बिल्लियाँ, बंदर, गणेश चतुर्थी जुलूस हैं, बल्कि 1930 के दशक के बॉम्बे के पारसी समुदाय की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की कल्पना करने में भी मदद करते हैं। चित्रकार द्वारा समय अवधि, सेटिंग और वेशभूषा पर किए गए विस्तृत शोध की सराहना की जानी चाहिए। चित्रण इतना जीवंत और सिनेमाई है कि लगता है वे अचानक जीवित हो उठेंगे और लोग पुस्तक से बाहर आ जाएंगे। एक कलाकार को सच्ची श्रद्धांजलि देने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि उनके काम को कलात्मक रूप से प्रदर्शित किया जाए। इस किताब के चित्रण में प्रिय कुरियन सफल दिखती हैं।
किताब के आखिर में, होमाई व्यारावाला का संक्षिप्त परिचय उनकी ब्लैक एंड व्हाइट फोटो के साथ दिया गया है। इसके साथ ही, अल्काज़ी कलेक्शन ऑफ़ फोटोग्राफी के आर्काइव से ली गई उनके द्वारा खींची गई तीन तस्वीरें भी प्रकाशित की गई हैं। इन तस्वीरों से हमें उनके व्यक्तित्व को और गहराई से जानने में मदद मिलती है।
दूसरी किताब ‘लेडी टार्जन! जमुना’ एक ऐसी महिला की कहानी कहती है जिसने जंगलों को बचाने की बेखौफ़ लड़ाइयाँ लड़ी हैं। किताब की शुरुआत ही बहुत रोमांचक है। एक तीर दनदनाता हुआ उस पेड़ में धँस गया है, जिसे काटने की कोशिश हो रही है। सामने एक अकेली महिला धनुष लेकर उन व्यक्तियों को ललकारते हुए कह रही है, ‘मेरे भाइयों को छोड़ दो!’ अपनी बेटी के साथ जब इस किताब को पढ़ रहा था, उसका पहला सवाल यही था, ‘इसके भाई कौन हैं?’ यानि पहला ही पृष्ठ पाठक के लिए विषय प्रवेश का रास्ता रोमांचकारी तरीके से खोलता है, जो कि किताब में आगे बढ़ते हुए पुष्ट होता जाता है। इस तरह किताब सफल होती दिखती है। आगे के पन्नों पर जमुना टुडू के बचपन की कहानी बयां की गई है, जो थोड़ी नाटकीय और आदर्शवादी भी लगती है। लेकिन आगे की पृष्ठों में यह संभलती हुई दिखी। जब जमुना शादी करके मुटुरखम गाँव पहुँची, तो उन्होंने देखा कि लोग पेड़ों को काट रहे हैं। यह देखकर उन्हें बहुत दुख हुआ। उन्होंने गाँव वालों से पेड़ों को बचाने की गुहार लगाई, लेकिन कोई भी उनकी मदद के लिए आगे नहीं आया। आखिरकार, जमुना ने अकेले ही पेड़ों को बचाने का फैसला किया। उन्होंने अपनी जान की परवाह किए बिना पेड़ों और जंगल की रक्षा करने का बीड़ा उठाया। इस तरह, एक अकेली महिला ने पेड़ों को बचाने के लिए एक मोर्चा खोल दिया और अपना पूरा जीवन पेड़ों के लिए समर्पित कर दिया।
राजीव आइप के चित्रण कहानी के साथ तालमेल बिठाते दिखते हैं। कवर पेज और शुरुआत के चित्रण, उनका रंग संयोजन अच्छा है। किताब को एक लय देता है। किताब में चित्रण की संभावना को उन्होंने समुचित उपयोग किया है। विभिन्न एंगल्स और पर्सपेक्टिव लेकर वो आये हैं। जंगल का चित्रण शुरुआती पृष्ठों में अच्छा है, लेकिन बाद में एक दुहराव लेकर चलता दिखाई देता है। पेड़ों और वनस्पतियों की विवधता को वो चित्रण में लेकर नहीं आ पाए हैं। उड़ीसा और झारखंड के जंगलों, उनकी वनस्पतियों पर शोध इनके काम को प्रभावी बना सकता था।
जमुना टुडू भारत में पर्यावरण को बचाने के लिए काम करती हैं। उनका जन्म 19 दिसंबर 1980 को मयूरभंज में हुआ था। उन्होंने अपने गाँव के पास पेड़ों की गैरकानूनी कटाई को रोकने के लिए पाँच अन्य महिलाओं के साथ मिलकर काम किया। बाद में, उन्होंने इसे एक संगठन बना दिया। झारखंड में, उन्हें 'लेडी टार्ज़न' कहा जाता है क्योंकि उन्होंने लकड़ी माफिया और नक्सलियों का सामना किया। इन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया है। बच्चों के लिए एक जरूरी किताब।
इस किताब को लिखा है लावण्या कार्तिक ने, चित्रण
राजीव आइप का है, अनुवाद सारिका ठाकुर का है।
तीसरी किताब ‘रॉकस्टार इन अ साड़ी’ दमदार गायिका उषा उत्थुप के जीवन पर आधारित है। इसे लिखा पर्ल डि सिल्वा और चित्रण वसुंधरा अरोड़ा का है। हमारा समाज अनेक पूर्वाग्रहों को लेकर बना है। जो समावेशी तो बिल्कुल भी नहीं है। अलग-अलग खांचों और आग्रहों ने इसे विद्रूप ही किया है। इस किताब से गुजरते हुए मैं इस बात को गहरे से महसूस करता रहा। हमारे समाज ने अलग-अलग कामों के तयशुदा खाँचे और परिपाटियाँ बना रखी हैं।
नृत्य करने वालों के लिए विशेष शारीरिक सौष्ठव,
चित्रकारों के लिए लचीली उँगलियाँ, रेसलिंग के लिए बड़े-डील डौल वाले और गायन के लिए
सुरीली और पतली आवाज। उषा उत्थुप को अपनी भारी आवाज की वजह से बिल्कुल शुरुआत स्तर
पर ही यानि उनके स्कूल में गायन की टीम में नहीं शामिल किया गया। क्योंकि उनकी संगीत
की शिक्षिका को उनकी आवाज गायन के लिए उपयुक्त नहीं लगी थी। बंबई में रह रहे उषा उत्थुप
के घर में गायकी का माहौल था। दोनों बहनें अच्छी गायिकाएं थीं। उषा उत्थुप भी अपनी
आँखों में एक रॉक स्टार बनने के सपने सँजोये थीं। पूरा परिवार शाम को रेडियो सुनने
के लिए एक जगह इकट्ठा होता था। उषा उत्थुप उसे अपने दिन का सपने महत्वपूर्ण लम्हा बताती
हैं। माहौल मिलने से गायकी चलती रही। फिर मौके भी मिलने लगे। सपनों ने शायद सच होने
की जिद जो ठान रखी थी। बीच-बीच में अड़चनें थीं। जैसे ‘भारी आवाज
के साथ कौन गाता है?’ के बाद कौन साड़ी पहनकर अंग्रेजी गाने गाता
है... यानि कि कौन रॉकस्टार साड़ी पहनता है, चूड़ियाँ पहनता है, बिंदी लगाता है। उषा
उत्थुप ने तमाम वर्जनाओं और बाधाओं को अपने दम पर आत्मविश्वास के साथ पार किया है।
तभी तो अभिनेता फरहान अख्तर ने उन्हें ‘रॉकस्टार इन अ सारी’ से संबोधित किया था।
लेखिका ने बहुत ही सधी हुई और आसान भाषा में
उषा उत्थुप के जीवन की कहानी को लिखा है। हिन्दी अनुवाद ने सुनिश्चित किया है कि भाषा
प्रवाह बना रहे।
लेखिका ने सरल और प्रभावी भाषा में उषा
उत्थुप की कहानी बताई है, और हिंदी अनुवाद ने भाषा के प्रवाह को बनाए
रखा है। वसुंधरा अरोड़ा के कुछ चित्र जीवंत और रंगीन हैं। उषा उत्थुप की
प्रसिद्ध कांजीवरम साड़ियों, फूलों से सजे बालों और अनोखे
जूतों के चित्रण में बारीकियाँ हैं। जिनमें उनकी आरामदायक और
अनूठी पोशाक शैली को खूबसूरती से दर्शाया गया है।
ये तीनों जीवनियाँ असाधारण महिलाओं की प्रेरक कहानियाँ हैं, जिन्होंने
रूढ़ियों को तोड़ा, चुनौतियों का सामना किया और अपनी दृढ़ता
से सफलता प्राप्त की। इकतारा और पराग इनिशिएटिव ने इन महत्वपूर्ण जीवनियों को
प्रकाशित करके वर्तमान बाल साहित्य को समृद्ध ही किया है।
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