गद्य की तीन टटकी किताबें
(पुस्तक मेले से बच्चों एवं किशोरों के लिए गद्य की कुछ किताबें
लेकर आया था। यह ब्लॉग मेरे द्वारा पढ़ी गई किताबों में से तीन संग्रहों पर केंद्रित
है।)
1. किताब का नाम - बारह सौ की बाटी और अन्य किस्से
लेखक – शिवनारायण गौर
चित्रकार – नीलेश गेहलोत
प्रकाशन – एकलव्य
पृष्ठ – 36
मूल्य – 80 रुपये
मात्र
बारह सौ की बाटी और अन्य किस्से शिवनारायण गौर की बच्चों के
लिए लिखी गई पहली ही किताब है। जिसे लेखक ने छोटे-छोटे किस्सों का संकलन कहा है।
‘हमारे अंदर भी कोई एक बात ऐसी हो सकती है, जिसकी अपनी मौलिकता
हो। जो लोगों के लिए हमें हँसी का पात्र बना सकती है। लेकिन हमने उसे नियंत्रित करना
सीख लिया होता है। मगर इन किस्सों के किरदारों ने ऐसा नहीं किया है। लोग क्या कहेंगे
की सोच से बाहर निकल, वे बिना किसी की परवाह किए अपने तरीके से जीवन जीने की कोशिश
कर रहे हैं।‘
(किताब की भूमिका)
इस किताब से गुजरते हुए कई अनोखे किरदारों से परिचय होता है।
अनोखे इस दृष्टि से कि अमूमन ऐसे चरित्र आसपास दिखाई नहीं देते। अगर आसानी से दिख रहे
होते तो क्या वे अनोखे होते भी? क्या अनोखापन विशिष्टताबोध लेकर आता है? क्या सहज,
सामान्य और उपलब्ध होना, मौलिक होना नहीं होता। ऐसे बहुतेरे सवाल इस किताब से गुजरते
हुए मन में आवाजाही करते रहे। जिनके जवाब ‘हाँ’ और ‘नहीं’ दोनों में ही थे। किरदारों
के अनूठेपन की वजह से यह किताब धीरे-धीरे मन पर असर करती है। शायद दूसरे या तीसरे पात्र
से मिलने के बाद। जब एक-एक करके पात्र सामने आने लगते हैं तो बीत चुके पात्रों की अहमियत
भी खुलती है। फिर पन्ने पीछे की ओर उलटते हुए उन्हें दुहरा लेना होता है। ऐसा इसलिए
होता है कि किताब के शीर्षक से उम्मीद किसी किस्से की बंधती है, परंतु पाठ से गुजरते
हुए साथ चल देते हैं किरदार। इसलिए किस्सों से ज्यादा जीवंत किरदारों का एक अलबम जैसी
लगती है यह किताब। ठीक वैसे ही जैसे, महादेवी वर्मा ने अपने संकलन ‘मेरा परिवार’ में
नीलकंठ, सोना, गिल्लू, गौरा आदि कुछ विशिष्ठ मानवेत्तर प्राणियों के प्रति अपनी सहज,
सौहार्द्र और एकांत आत्मीयता की अभिव्यंजना को शब्दचित्रण में व्यक्त किया है।
लेकिन यह किताब थोड़ी अलग है। छोटे-छोटे किस्सों के शक्ल में
पगी, शुरुआती पाठकों का खास ख्याल करती हुई। भाषा की सहजता और कुछ रोचक या मार्मिक
घटनाक्रम उद्घाटित कर देने का सायास प्रयास न करना ही इस किताब को अलग भी बनाता है।
शायद इस वजह से यह किताब किस्सों की किताब कम और किरदारों के संस्मरण ज्यादा प्रतीत
होती है। विधा जो भी है, इसे अकादमिक जगत के लोग तय करेंगे, पाठकों खासकर किशोरवय लोगों
के लिए यह एक मजेदार किताब साबित होगी। इस बात को यहाँ भूलना नहीं चाहिए कि बदलते समय
में सभी एकांतिक होते जा रहे हैं। बच्चे और किशोर भी। एकांतिक होना सामाजिक होने से
दूर ले जाता है। जिसकी वजह से लोग कम ही आपके जीवन, आपकी कहानियों में शामिल होते हैं।
परंतु लेखक ने सघन सामाजिक जीवन जीया हुआ है। कम से कम इस किताब
के किरदारों से गुजरते हुए ऐसा तो लगता ही है। इस किताब के पात्रों पर एक नजर डालते
हैं,
एक तीस-पैंतीस साल की आदिवासी महिला, जिसका छह-सात साल का बच्चा
है। हाथ पाँव में गोदने गुदे हैं, पैरों में मोटे-मोटे कड़े पहने वह कार चलाकर महुआ
चुनने जाती है।
एक सरकारी विद्यालय में पढ़ाने वाले प्राइमरी के मासाब। बिना
टिकट ट्रेन की यात्रा करने वाले। एक भगवा चोला पहन कर गर्मियों में यात्रा पर निकल
जाते हैं। भेस की वजह से ट्रेन में जगह, खाना और सम्मान सभी मिल जाता है। टिकट चेकर
भी सहयोग करता है। अगर कोई जिद्दी टिकट चेकर मिल जाता है, तो किसी स्टेशन पर उतर जाते।
फिर उसी शहर या गाँव में घूमते। घूमने के बाद फिर आगे की यात्रा शुरू करते।
दूसरे के प्यार का सम्मान करने वाले सूर्यवंशी जी, जो बंद घड़ी
इसलिए तीस वर्षों तक अपनी कलाई पर बांधते रहे क्योंकि वह घड़ी उन्हें भेंट में मिली
थी।
सौ रुपये का खुल्ला करने के लिए किसी दुकान का बार-बार चक्कर
लगाने वाले छपका दादा। खुल्ले मिल जाने के बाद उसे बँधवाने के लिए भीड़ का इंतजार करते
छपका दादा।
या फिर अपने शौक के लिए दूसरों की साइकिल बिना बताए लेकर भाग
जाने वाले साइकिल वाले चाचा।
इस संग्रह में चौदह पाठ हैं, साथ ही बहुतेरे रंग हैं किरदारों
के। जो पढ़ते हुए गुदगुदाते हैं, ठहाके लगाने पर मजबूर कर देते हैं, आपकी सोच के साथ
यात्रा पर निकल पड़ते हैं। यदि इस संग्रह के किरदारों के रंगों को थोड़ा और प्यार दुलार,
थोड़ा वक्त, मिल जाता तो, इन पाठों के जीवंत किस्सों में तब्दील होने की भरपूर संभावना
थी। इन पाठों के शीर्षक चयन भी बेहतर हो सकते थे। बहरहाल जीवंत किरदारों को हमारे जीवन
में दाखिल कराने के लिए लेखक का शुक्रिया।
युवा इलस्ट्रेटर नीलेश गेहलोत ने कुछ सीमित रंगों के प्रयोग
से पात्रों के चित्रण को गहराई दी है जो कि लेखक के शब्दों के साथ सुंदर संयोजन बिठाते
दिखते हैं। किताब का कवर बेहतर बनाया जा सकता था। उन्हें भी बधाई।
एक सुंदर और जीवंत किताब को पाठकों तक पहुँचाने के लिए इसकी
संपादिका सीमा और प्रकाशन एकलव्य का भी साधुवाद।
2. किताब का नाम – पेड़ का पता
लेखक – सुशील शुक्ल
चित्रकार – तपोषी घोषाल
प्रकाशन – इकतारा
पृष्ठ – 26
मूल्य – 100 रुपये
मात्र
‘पेड़ का पता’ कवि, लेखक एवं संपादक सुशील शुक्ल का नया गद्य
संग्रह हैं। इस संग्रह में उन्नीस रचनाएं शामिल हैं। इनकी पूर्व में प्रकाशित किताब
एक बटे बारह की तुलना में छोटी किन्तु प्रभावी रचनाएं। पेड़, पृथ्वी, प्रकृति आदि विभिन्न
विषयों पर लिखी गई इन रचनाओं को पाठक पहले ही चकमक, साइकिल और प्लूटो में पढ़ते रहे
हैं। सभी रचनाओं को एक अब जगह पढ़ा जा सकता है। बेहद सधी हुई सुंदर और प्रभावी रचनाएं।
इस संग्रह की पहली रचना ‘वो तीन पेड़’ मेरे अनुभव में एक ऐसी रचना रही है, जो बड़े
पाठक वर्ग से आसानी से जुड़ती है, अपने सघन प्रभाव के साथ।
‘वो तीन पेड़’ पहले पहल मैंने चकमक पत्रिका के एक अंक में पढ़ा था। उसके बाद साइकिल
में। साइकिल वाली रचना के साथ एलन शॉ का एक बेहद प्रभावी इलस्ट्रेशन था, जो इस किताब
में प्रकाशित तपोसी घोषाल के चित्र ‘हरा कौवा’ की तुलना में बड़ा सटीक, गझिन और इस गद्य
का पूरक था। इस रचना की कुछ पंक्तियाँ देखते हैं,
‘मैं हरा सूरज बनाता हूँ तो टीचर डाँटते हैं। अजीब बात है कि कोई हरे पेड़ से फर्नीचर
की दुकान बनाता है तो कोई उसे नहीं डाँटता।‘
उसी तरह बादलों से पानी मिला तो एक छोटी किन्तु प्रभावी रचना है। बिम्ब विधान बड़ा
सटीकता से इसके अंत में प्रयुक्त है
‘कभी-कभी इसी नाव में भैंसे आकर बैठ जाती हैं। जब उन्हें पता चलता है कि यह नाव
कहीं नहीं जाएगी तो वे उठकर चली जाती हैं।‘
इसके साथ बना एक सुंदर एरियल व्यू का लैंडकेप गद्य के साथ जुगलबंदी करता प्रतीत
होता है। प्रभावी रचना।
वहाँ, पृथ्वी घूमती है, अकेला जूता, अंधेरा और रहमत का झोला विषय विशेष और लेखन
की वजह से प्रभावित करते हैं। शेष रचनाएं अच्छी
जरूर हैं, लेकिन जो पाठक सुशील शुक्ल को नियमित पढ़ते रहे हैं, यहाँ विषय और संवेदना
दोनों का दुहराव ही पाते हैं। तेज़ हवाओं की कहानी, पेड़ का पता, कहीं जाने के लिए जैसी
कुछ रचनाएं पढ़ने और बिम्ब विधान में प्रभावी तो लगती हैं, लेकिन उनमें लेखक की कोई
अपनी शैली दिखाई नहीं देती।
किताब के इलस्ट्रेशन साधारण हैं।
3. किताब का नाम – बतखोरू और अन्य कहानियाँ
लेखक – वीरेंद्र दुबे
चित्रकार – मयूख घोष
प्रकाशन – एकलव्य
पृष्ठ – 36
मूल्य – 80 रुपये
मात्र
वीरेंद्र दुबे पिछले एक दशक से काफी सक्रियता
से बच्चों के लिए लेखन कर रहे हैं। उनकी रचनाएं चकमक, साइकिल और प्लूटो जैसे पत्रिकाओं
के माध्यम से हम तक पहुँचती रहती हैं। एकलव्य द्वारा प्रकाशित ‘चल मेरे मटके टम्मक
टू’ लोककथा के बाद बच्चों के लिए लिखी गद्य की इनकी दूसरी किताब है, बतखोरू और अन्य
कहानियाँ। इस संग्रह में कुल तेरह रचनाएं हैं जिन्हें शुरुआती पाठकों को ध्यान में
रखकर लिखा गया है। ये रचनाएं पूर्व में चकमक पत्रिका में समय-समय पर प्रकाशित होती
रही हैं।
इस संग्रह की कहानियों में उभरी दुनिया खट्टे-मीठे, रसभरी किस्से-कहानियों से भरी है, जहाँ हर मोड़ पर भावनाओं का एक नया रंग मिलता है। कभी यह कहानियाँ आपको
हँसी से लोटपोट कर देती हैं, तो कभी रहस्य और चमत्कारों की
उलझी हुई गुत्थियों में खो जाने पर मजबूर कर देती हैं। इन कहानियों की दुनिया में
आपको विभिन्न प्रकार के अनोखे और दिलचस्प पात्र मिलते हैं। मसलन
चिड़ियाँ हर साल संगम घाट पर डेरा डालती हैं। वे बारहवें साल का इंतजार नहीं करतीं।
(चिड़ियों के झुंड)
एक कौवे को जब फोटोग्राफी का शौक जागता है तो वह गर्दन में कैमरा लटकाए इधर-उधर
घूमता है। (फोटोग्राफर)
एक कहानी उस समय की जब मेढकों की मूँछें थीं। लंबी, घनी और घुँघराली मूँछें।
(मूँछें मुन्नू की)
बतखोरू की दादी जो कहती ‘बबीता बड़बड़ाती है तो बड़बड़ाने दो, तुम्हें नहीं सुनना है
तो मत सुनो। (बतखोरू)
बातूनी लाल चूहा जो बोलना शुरू करता तो चुप होने का नाम नहीं लेता है। (बातूनी)
जूँ ढूँढ़ने और ढूँढ़वाने वाली नैन्सी की बुआ। (जूँ वाली बुआ)
और तो और एक गाँव भी पात्र की तरह उभरता है, जहाँ एक से बढ़कर एक बेसुरे रहते हैं। भोर से लेकर रात तक रियाज़ करने वालों की होड़ लगी रहती है। (बेसुरा राग)
आकार में छोटी होने के बावजूद, प्रभाव में ये कहानियाँ लोककथाओं सरीखी की तरह लगती हैं, जिनमें जीवन के महत्वपूर्ण संदेश छिपे होते हैं। फंतासी और जादुई यथार्थ को
आधार करके बुनी ऐसी कुछ घटनाएँ जो आश्चर्य में भी डालती हैं।
जैसे; गाँव के तालाब का पानी अचानक बर्फ में बदल जाना, एक ऐसी घटना जो पाठक को
सोचने पर मजबूर कर देगी कि क्या सच में ऐसा हो सकता है। (उस दिन)
इतिहास के पृष्ठ पर उँगली रखते ही पाठ के शब्द गायब होने
लगना, फिर नए इतिहास का उभरना, चमत्कृत तो करता है, पर सामयिक परिस्थितियों में हैरान
नहीं करता। हालाँकि कहानी के पात्र तो अचंभित होते हैं। (लापता शब्द)
बेसुरे लोगों का डाकुओं को खदेड़ देना, एक ऐसी कहानी
जो आपको बताएगी कि कभी-कभी सबसे असामान्य लोग भी सबसे बड़े काम कर सकते हैं। (बेसुरा
राग)
ये कहानियाँ पाठक को एक ऐसी दुनिया में ले जाती हैं जहाँ कल्पना और वास्तविकता
के बीच की रेखा धुंधली हो जाती है। यह कहानियाँ न केवल मनोरंजन करती हैं, बल्कि जीवन के बारे में सोचने के लिए भी
प्रेरित करती हैं।
किताब का मुख्य पृष्ठ आकर्षक है। कहानियों के इलस्ट्रेशन भी सुंदर बन पड़े हैं और
कहानियों से जुड़ते हैं। सिवाए एक कहानी उस दिन के चित्रण को छोड़ के।
बहरहाल सुंदर किताब के लिए लेखक, चित्रकार, संपादक और प्रकाशक को बधाई।
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