कविता की तीन टटकी किताबें

 {हर वर्ष की तरह इस पुस्तक मेले से कुछ किताबें खरीद लाया (जाहिर है जिनका फोकस बाल साहित्य ही था) । उम्मीद है कि जल्दी ही किताबें पढ़ ली जायेंगी। मेरे विचार से क्या कुछ नया था, किताबों की दुनिया की कौन सी बात पसंद आयी इन्हें लिखने की कोशिश करूँगा। यह ब्लॉग तीन नए कविता संग्रहों पर केंद्रित है।}

1. 

किताब का नाम – चिया की साइकिल                                           

कवि – यश मालवीय

चित्रांकन – अचिन्त्य मालवीय

प्रकाशक – अनबाउंड स्क्रिप्ट

मूल्य – 175 रुपये मात्र  

बात अपने शहर गढ़वा (झारखंड) से शुरू करता हूँ। उस वर्ष छठी या सातवीं कक्षा में रहा होऊँगा। दिसम्बर का महीना था। कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। वार्षिक परीक्षाएं शुरू हो गयी थीं। पहले दिन की दोनों पालियों के पेपर अच्छे गए थे। शाम को पता चला कि शहर में कवि सम्मेलन है। मेरी याद से पहला कवि सम्मेलन। दो तीन अच्छे कवि आ रहे हैं। इसकी चर्चा घर में थी। उन्हें सामने से  सुनने की इच्छा तो थी, परंतु अगले दिन दो पेपर और थे। पापा सृजन संस्था से जुड़े थे। आयोजन और कविता पाठ दोनों जिम्मेदारियों के साथ। शाम उधेड़बुन में बीती। छह बजे होंगे जब पापा कवि सम्मेलन के लिए निकले। जाते-जाते उन्होंने बड़े भाई से कहा, ‘कल की पढ़ाई कर लेना। साढ़े सात के बाद इसे (यानि मुझे) लेकर आ जाना।‘ इतना सुनना था कि मेरा उत्साह दूना हो गया। डेढ़ घंटे में अगले दिन की सारी पढ़ाई करके मैं तैयार था, कविताएँ सुनने के लिए। थोड़ी ही देर में बड़े भाई और मैं शहर के टाउन हॉल में थे। कवि सम्मेलन शुरू हुआ। उस उम्र में जिन दो कवियों को सुनकर सबसे ज्यादा मज़ा आया वे थे इलाहाबाद से आए एहतराम इस्लाम और यश मालवीय। यश मालवीय के लेखन और पाठ दोनों ने बहुत प्रभावित किया। बहुत बाद में जब मेरा पढ़ने-लिखने का दायरा बढ़ा तो पता चला दोनों इस देश के शीर्ष कवियों में से हैं।

इस पुस्तक मेले में किताबें ढूँढ़ते-टटोलते हुए मेरी नजर एक प्यारी सी किताब पर पड़ी। शीर्षक था ‘चिया की साइकिल’। यश मालवीय की लिखी बच्चों की कविताएं। बैक कवर पर सुंदर सी परिचयात्मक पंक्तियाँ थीं,


संता क्लाज़ से थोड़ी कम ही,

इनकी झक-झक दाढ़ी है

संता के तो रेनडियर हैं

इनकी धक्का गाड़ी है

इक काँधे पर झोला है

दिल बच्चों सा भोला है

झोले में कविताएं हैं

खुशियाँ दाएँ-बाएँ हैं

यश अंकल तो संता जैसे

हो-हो करके हँसते हैं

इनके पास तो गीतों वाले

नन्हें-नन्हें बस्ते हैं।   

परिचय पृष्ठ से मालूम हुआ कि यश मालवीय की यह बच्चों के लिए लिखी दूसरी किताब है। इससे पहले इनका ‘रेनी डे’ नामक बालगीत संग्रह प्रकाशित हो चुका है।

‘चिया की साइकिल’ संग्रह में कुल पचास कविताएँ संकलित हैं। हाल-फिलहाल में पढ़ी गई कविताओं से ये कविताएं अलग सी प्रतीत होती हैं। इन कविताओं से गुजरते हुए लगता है कि कविता का प्रारूप, भाषा और बिंबों के प्रयोग का पुराना दौर नये बचपन के साथ अठखेलियाँ कर रहा है। सहजता, सरस भाषा एवं तुकबंदी का प्रयोग ऐसा जैसे मीठी मिश्री मुँह में धीरे-धीरे घुल रही हो। एक बानगी देखते हैं।

रस्ता-रस्ता

मंज़िल-मंज़िल  

चिया की साइकिल

चिया की साइकिल

 

दीवाली से पहले आई

झिलमिल झिलमिल

झिलमिल झिलमिल

नीली-नीली

खुशदिल खुशदिल     (चिया की साइकिल)

 

या फिर


छेड़ रही सौ-सौ सरगम

चिया की पायल छम-छम-छम

बारिश की बूँदों जैसा

बजता घुँघरू का मौसम

घर भर में संगीत सजे

दिन-दिनभर हरदम-हरदम   (चिया की पायल छम छम छम)

इस संग्रह से गुजरते हुए दो तरह की कविताएँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। एक जो विशुद्ध बच्चों की कविताएँ हैं। जिनके केंद्र में बच्चे हैं, उनका परिवेश, उनके अनुभव और मनोविज्ञान स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। विषय और उनकी चिंताएं भी सामयिक हैं। जाहिर है उनके सवाल हैं तो जवाब भी होंगे।

सबकी बना सवारी लेकिन

उसकी नहीं सवारी है

परेशान हाथी बेचारा

कैसी दुनियादारी है

 

यही सोच खुद को समझाता

शायद सबसे भारी है

इसीलिए पैदल चलता है

उसकी नहीं सवारी है।    (हाथी बेचारा)


बिल्ली काली, बड़ी निराली

चढ़ी मुँडेरी पर

सुबह-सुबह देखो निकली है

हेरा -फेरी पर।     (बिल्ली चढ़ी मुँडेरी)


कुछ कविताएँ ऐसी हैं जिसमें कवि ने बचपन को जैसा देखा है, महसूस किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि उनमें से कविता के विषय चुने हैं। इस बात को अन्य कविताओं के उदाहरण से समझा जा सकता है। मान लीजिए आपको अपने गली के नुक्कड़ पर टंगा एक लाल रंग का बॉक्स दिखता है। किसी ने बताया कि यह लेटर बॉक्स है। जिससे चिट्ठियाँ भेजी जाती हैं। एक समय अंतराल पर बच्ची को लगता है कि मेल भेजने के लिए तो इसका उपयोग हो नहीं रहा। जबकि मेल मोबाइल और कंप्यूटर पर आते रहते हैं। दो अलग-अलग पीढ़ियों के बीच यदि इस विषय पर संवाद हो तो शायद वह इस तरह का ही होगा जैसा कि कवि ने कविता में पिरोया है।

 

चिड़ियों सी उड़ गई चिट्ठियाँ

अब है खाली रहता  

लेटर बॉक्स, ‘ई-मेल’ का दादा

क्या सुनता? क्या कहता?

 

गली किनारे खड़ा, सहे

बस धूप हवा पानी को

चिया नहीं अब चिट्ठी लिखती

नाना  को, नानी को।   (लेटर बॉक्स : ई मेल का दादा)  

 

संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए भाषा का प्रयोग बाल कविता में एक रवानगी का एहसास तो कराता है, साथ ही चकित भी करता है।  कुछ उदाहरण देखे जाने चाहिए,

गीत नाटक चित्रकारी

कार्यशाला है हमारी।  (फूल हैं हम)

 

बजते-बजते लाउडस्पीकर

लेने लगा डकार

इस चुनाव में सच्चा-झूठा

करता रहा प्रचार।     (लाउडस्पीकर)

 

दाँत एक दिन दर्द हुआ

चेहरा ही हो गया धुआँ

हाल पूछने घर आई

सुबह-सुबह लोमड़ी बुआ।    (कान पकड़ते भालू जी)

 

चेहरे पर बदमाशी है

थोड़ी-थोड़ी पापा सी

थोड़ी-थोड़ी माँ सी है।  (चेहरे पर बदमाशी है)

 

अल्लम गल्लम मुर्ग मुसल्लम

चखती बड़े शौक से चमचम  

मछली फ्राई भेजा फ्राई

बिना बात भी करती क्राई

खाती है चुप-चुप  च्विंगम।   (अल्लम गल्लम)

इस संग्रह में इलस्ट्रेशन अचिन्त्य मालवीय का है। जो कविता के साथ ठीक-ठीक ताल मेल बिठाते हैं। हालाँकि संग्रह का कवर बहुत सुंदर बन पड़ा है। एकाध प्रूफ की गलतियाँ हैं। उम्मीद है प्रकाशक अलग संस्करणों में उसे ठीक कर लेंगे।  

इस संग्रह की कविताएं पढ़ने और पढ़कर सुनाने, दोनों तरीकों से मजेदार लगती हैं। ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि हर उम्र के पाठकों को यह संग्रह पसंद आएगा।   

 

2.

किताब का नाम  - अता का पता     

कवि – वीरेंद्र दुबे

चित्रकार – कनक शशि

प्रकाशन – इकतारा ट्रस्ट

पृष्ठ – 28

मूल्य – 80 रुपये मात्र

हाल के वर्षों में वीरेंद्र दुबे ने बच्चों के लिए लिखी गई रचनाओं से पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया है। हास्य व्यंग का पुट लिए इनकी कहानियाँ और कविताएं सहज रूप से हर उम्र के पाठकों के मन को गुदगुदाती हैं। तकरीबन पचास वर्षों से शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय वीरेंद्र दुबे, पिछले एक दशक से बच्चों के लिए नियमित लेखन कर रहे हैं। इनकी रचनाएं चकमक, प्लूटो और साइकिल जैसे पत्रिकाओं के माध्यम से पाठकों तक पहुँची और प्रशंसित होती रही हैं।  पहला कविता संग्रह ‘चार चटोरे’ 2019 में इकतारा ट्रस्ट के द्वारा प्रकाशित हुआ था। जिसे हर उम्र के पाठकों ने बेहद पसंद भी किया था। आज भी अपने आस पास के बच्चों को उस संग्रह की कविताओं को मजे से पढ़ते, सुनाते देखता हूँ। बहुत ही मजेदार और रोचक क्षण होता है बाल पाठकों के चेहरे के भावों को देखना।

अब तक नहीं

बताया क्या

आज सुबह से

खाया क्या

हमने खाई

पकी इमलियाँ

मुँह में पानी

आया क्या?        (पकी इमलियाँ)

 

एक हमारे

दद्दू जी

मोटे ताजे

कद्दू जी

उड़ जाएँ हाथी

खड़े-खड़े

जब करे दें वे

पद्दू जी।         (पद्दू)

एक दूसरी किताब इनकी 2023 में आई थी, जो एक लोककथा का पुनर्लेखन थी, 'चल मेरे मटके टम्मक टू।'  इस पुस्तक मेले में वीरेंद्र दुबे की दो किताबें आईं हैं। पहला कविता संग्रह ‘अता का पता (इकतारा)’ और दूसरा ‘बतखोरू और अन्य कहानियाँ (एकलव्य)’। लेखक से जुड़ी सूचनाएँ यहाँ विस्तार से साझा करने का प्रयोजन बस इतना ही है कि इस आलेख के पाठक को समुचित जानकारी मिल सके। हालाँकि इसके लिए प्रकाशक की जवाबदेही तय होनी चाहिए कि वे जिसकी किताब प्रकाशित कर रहे हैं, उसके परिचय को इस तरह से लिखें जिससे पाठक को लेखक की अन्य किताबों के बारे में पता चल सके। एकलव्य से प्रकाशित ‘बतखोरू और अन्य कहानियाँ’ के परिचय में एक ही किताब ‘चार चटोरे’ का जिक्र है। जबकि इकतारा से प्रकाशित ‘अता का पता’ में जिस भाषा में लेखक के रचनाकर्म का परिचय दिया गया है, वह खटकता है! बानगी के तौर पर,

‘चार चटोरे’ के बाद इकतारा के साथ ये उनकी दूसरी किताब है।‘

इस तरह से परिचय लिखने का यह चलन शायद नया-नया है। इससे यह ध्वनित होता है मानों, इस प्रकाशन से प्रकाशित साहित्य के अतिरिक्त जो भी लेखक के द्वारा बाल साहित्य के लिए किया गया काम है, वो रेखांकित करने योग्य नहीं है।

बहरहाल यहाँ ‘अता पता लापता’ की चर्चा पर फोकस करते हैं। पिछले संग्रह की तुलना में इस संग्रह में छोटी-छोटी कविताएँ हैं। दो से पाँच पंक्तियों वाली कुल तेरह कविताएँ। खाकी पन्नों पर काले रंगों से बने सुंदर इलस्ट्रेशन से सजी हथेलियों में समा जाने वाली किताब।  कुछ कविताएं पत्रिकाओं में पहले भी प्रकाशित हुई हैं, उनको इस संग्रह में संकलित किया गया है।  

हास्य, ध्वनियों और परिवेश में सहजता से गोचर चीजों को लेकर बनाए गए बिंबों से बनी भाषा लेखक की पहचान है। भाषा बरतते हुए कवि बहुत कुछ उसमें कलई कर देते हैं। भाषा के खेल भी दिखाई देते हैं। जिसको पढ़ते ही लगता अनायास मुँह से निकल पड़ता है ‘वाह!’ कुछ बानगी देखते हैं,

 

रिमझिम रिमझिम

टिमटिम टिमटिम

रिमझिम रिमझिम

टिमटिम टिमटिम

तुमने भी धुन खूब बनाई

बादल तुमको बहुत बधाई।

 

या फिर


हड़बड़ भगदड़ भीड़ भड़क्का

धक्का मुक्की रेलम पेला

जिसको देखो उसको जल्दी

एक सड़क चुपचाप खड़ी

उसको जल्दी नहीं पड़ी।


अनुनाद पत्रिका ने वीरेंद्र दुबे की कविताओं के बारे में लिखा है कि उनकी कविताएँ जैसे उतनी ही सहज भावभूमि पर ठहर जाती हैं जितना सहज एक बालमन होता है। 

इसी उम्मीद में पूरी किताब एक बैठक में पढ़ी जा सकती है। लेकिन एक दो कविताओं को छोड़ दिया जाए तो बाकी कोई विशेष प्रभाव नहीं छोड़ पाने में सफल नहीं दिखतीं। बल्कि कुछ कविताओं को बनाने में किया गया श्रम ही अधिक दिखता है, पाठक पर पड़ने वाले उनके प्रभाव से अधिक। प्रकाशक द्वारा कविताओं के चयन को लेकर और सावधानी की जरूरत महसूस होती है। साथ ही बच्चों के साथ ये कविताएँ कैसे काम करेंगी, इसे भी देखना जरूरी होगा। SMS और Tongue twister के नजदीक पहुँचती अधिकतर कविताएँ ‘बच्चों के लिए फन या खेल’ जैसे प्रयोग की जमीन पर खड़ी तो दिखती हैं, पर कोई छाप छोड़ पाएं ऐसा होता नहीं दिखता। कुल मिलकर पिछले संग्रह ‘चार चटोरे’ की तुलना में, यह संग्रह वीरेंद्र दुबे की किसी विशेष कविता को पाठकों तक पहुँचाने में सफल होता नहीं दिखता।  

 

3.

किताब का नाम – नींद का बक्सा    

कवि – मनोज कुमार झा

चित्रकार –  निशा रावत

प्रकाशन –  अनबाउंड स्क्रिप्ट

पृष्ठ – 64

मूल्य – 175  रुपये मात्र

 

‘नींद का बक्सा’ कवि मनोज कुमार झा का दूसरा बाल कविता संग्रह है, जिसे अनबाउंड स्क्रिप्ट ने प्रकाशित किया है। पहला संग्रह ‘जंगल के बीच ट्रेन खड़ी थी’ 2021 में इकतारा, भोपाल ने प्रकाशित किया है। जिसकी कुछ कविताएँ बच्चों के बीच लोकप्रिय रही हैं। जैसे

सुग्गे ने सुग्गे से पूछा

क्या होता है ट्रैफिक जाम

जैसे पूरा झुण्ड हमारा

खाने लगे एक ही आम।      


या फिर

खेत मालिक है और न परधान का

खेत बाजरे का है और है ये धान का

खेत मु खिया का है और न पहलवान का

किसान खेत का है और खेत है किसान का।

 

नए संग्रह की पहली ही कविता भाषाई प्रयोग से चकित करती है

पत्थरों ने सोचा

झमकि झमकि सोचा

खनकि खनकि सोचा

सोचा कि पहाड़ बनाएं।

इस कविता में प्रयुक्त झमकि-झमकि, खनकि खनकि, बिहसि बिहसि, हुलसि हुलसि जैसे शब्द युग्म कविता को लय प्रदान करते हैं। अक्सर पढ़ते हुए जो लय में नहीं होते, उनको लय देती कविता। एक इसी तरह की कविता है जिसमें शब्दों के जोड़े हैं और कविता को एक लय देते हैं

घास घास पर

बारिश बारिश

पत्ता पत्ता

बारिश बारिश

छाता छाता

बारिश बारिश।

मेढक बोला

बारिश बारिश

ओला ओला

बारिश बारिश।


एक और कविता का उदाहरण लेते हैं,

जंगल में इक मोर नाचा

बहुत देर से छुपा हुआ था

देख के उसको चोर नाचा।


मज़ा ऐसा कि पढ़ने वाले के चेहरे पर मुस्कुराहट खिल उठे।   

‘नींद का बक्सा’ की कई कविताएं, पाठक से बतकही या संवाद करती दिखती हैं। जिसके केंद्र में बाल सुलभता, उनके अनुभव और चंचलता है।

भगोने में दूध था

बिल्ली ने पी लिया

नाद में दूध हो

तब तो भैंस पिये।

 

या फिर

आम गिरा था रस्ते पर

मुनिया उठाकर लाई घर

यह चोरी हुई क्या!

 

जिसका पेड़ था आँगन आया

आम उठाकर भाग गया

यह चोरी नहीं क्या!

 

ये कविताएँ अलग-अलग जमीन पर स्थित दिखाई देती हैं। विषय, भाषा प्रयोग, उम्र सापेक्षता, बिम्ब विधान के मामले में कुछ कविताएँ बेहतर लिखी गई हैं। जैसे शीर्षक कविता

 

इक दिन बक्से में घुसकर के

सपनों को दोस्त बनाऊँगा

इनसे ढेरों बतियाऊँगा

इन्हें अपने खेत दिखाऊँगा

 

रात ने बोला रात से

पात ने बोला पात से

हवा हवा से खेल रही

सब खुश हैं बरसात से

कुछ कविताएं अपने अर्थों में गहरी हैं। वे पढ़ने से ज्यादा सुनने-सुनाने लायक हैं। साथ ही बच्चों के साथ बातचीत के लिए मौके देती हैं।

मुनिया ने इक कौआ देखा, अबकी बार

हवा में तैरता काला धब्बा, अबकी बार

धीरे-धीरे छोटा होता, अबकी बार

साथ में चलता जोड़ा तोता, अबकी बार ....

 

इन कविताओं के साथ बने श्वेत-श्याम इलस्ट्रेशन भावपूर्ण हैं। इस संग्रह में कुल 58 कविताएं हैं। उम्मीद है इन कविताओं को पाठकों का भरपूर प्यार मिलेगा। इसके लिए कवि और उनके प्रकाशक को साधुवाद। 


नवनीत नीरव 

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