एक किले में नौ-दस परियाँ

 (अचरज बंगला के संकलनकर्ता को पत्र)



किशोर पँवार जी,

नमस्कार

बहुत साधुवाद अद्भुत संकलन के लिये। 'अचरज बंगला' के साथ तीन महीने पूरे हुए। व्यक्तिगत पाठक के रूप में और शिक्षकों के साथ कहानी/कविताओं (लेखन एवं सुनना सुनाना)की कार्यशालाओं में इसका प्रयोग करते हुए खुद को समृद्ध मानता रहा। पुस्तक मेले में पहली बार इस संकलन को हाथ में लिया था। आकर्षण बहुत सहज था। बहुत छोटी सी कलात्मक किताब। अमीर खुसरो की किताब। पन्ने पलटते हुए सातवीं कक्षा की कुछ पहेलियाँ जेहन में कौंध गई थीं। जैसे

 

सावन भादों बहुत चलत हैंमाघ पूस में थोरी

अमीर खुसरों यों कहत हैं तू बूझ पहेली मोरी। 

(मोरी यानि नाली)

 

इधर को आवे उधर को जावे,

हर हर फेर काट वो खावे,

ठहर रहे जिस दम वह नारी,

खुसरो कहें वारे को आरी।। (आरी)

 

टूटी टाट के धूप में पड़ी।

जों जों सुखी हुई बड़ी।। (बड़ी)

 

ऐसी कुछ पहेलियाँ अब तक याद रही हैं क्योंकि भाषा आम बोलचाल वाली प्रयुक्त थी। संदर्भ बेहद अपने से थे या शायद उनसे मेरा अभी तक जुड़ाव रहा है। बिहार के सूदूर ग्रामीण क्षेत्र में मेरा गाँव है। जहाँ बिजली पिछले दशक के उत्तरार्ध में ही आई है। पक्की पगडंडीनुमा सड़कों के आने के ठीक बाद। कृषक परिवार से हूँ। इसलिए खेती की बहुत सारी प्रक्रियों से अवगत हूँ। आषाढ़ मास में धान की बुवाई से लेकरमाघ में आलू की पकी हुई फसल समेटने तक। या फिर पूस मास की अंधेरी में खेत-खेत घूमते हुए देखना कि गेहूं की फसल तक छोटी नहर का पानी पहुँचा या नहीं। इन सारे अनुभवों ने उन संदर्भों को चित्रात्मक रूप में मेरी स्मृतियों में जड़ दिया है जो बार-बार खुसरो की पहेलियों से गुजरते हुए मिल जाते हैं। मेरे गाँव में जब बरसात होती तो पानी का रेला उमड़ता है। गली नाली सब एक हो जाते हैं। हल, हँसिया, आरी और टाँगी (कुल्हाड़ी) श्रमशील कृषक गाँव की पहचान हैं। बड़ियाँ उन क्षेत्रों में लिए खाने-पीने के लिए जरूरी हो जाती हैं जब कुछ महीनों के लिए या तो गाँव मुख्य सड़क से कट जाता है या कोई आपदा जैसी स्थिति पैदा हो जाती है। यहाँ स्वाद से ज्यादा जरूरत वाला मामला लगता है। ये टिप्पणियाँ उपरोक्त तीन पहेलियों पर थीं। इन पहलियों की संरचना ऐसी है कि इनमें उनके उत्तर भी समाहित हैं।

अचरज बंगला में आपने लिखा है कि इस संकलन में जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों जैसे विषयों पर आधारित पहेलियाँ संकलित की गई हैं। जो कि सटीकता से इस पुस्तक में मिलती भी हैं और हर उम्र के पाठकों के लिए उपयोगी जान पड़ती हैं।  ऐसा मैं अपने हाल के दो अनुभवों के आधार पर कह रहा हूँ। पिछले महीने दिल्ली में और फिर इस सप्ताह बिहार के शिक्षक साथियों के साथ काम करते हुए मुझे महसूस हुआ कि इन पहेलियों को लोक संदर्भों की वजह से भी पढ़ा जाना चाहिए। पहेली को समूह में सस्वर पढ़ना एक मजेदार अनुभव होता है। उसके बाद भाषा को समझने की कोशिश एक अलग प्रक्रिया और विशेषज्ञता की तात्कालिक माँग करती है। सरल और सहज भाषा होने की वजह से लोग आसानी से जुड़ रहे होते हैं। फिर कई संदर्भों का जिक्र चला आता है। एक उदाहरण मैं यहाँ लिख रहा हूँ। कल ही बिहार के डुमरांव डायट में कुल सोलह पहेलियों के साथ एक छोटे समूह में काम करने का मौका मिला। जिसमें एक पहेली थी

पीली-पीली नदिया में गोल-गोल अंडे

नहीं बताओगे तो पड़ेंगे डंडे । (कढ़ी पकौड़ा)

भाषा इतनी सरस है कि पढ़ने के साथ ही उत्तर आना शुरू हो जाते हैं। लेकिन ऐसा पहली पहेली के साथ ही नहीं शुरू हो जाता। तीन-चार पहेलियों के बाद ऐसी स्थिति बन पाती है। इसकी वजह शायद पहेलियों का छूट गया अभ्यास है। जो कि तीन-चार पहेलियों के अभ्यास से सधने लगता है।

इस पहेली के उत्तर तक पहुँचने की प्रक्रिया मजेदार रही। किसी ने कहा कि सरसों होगा। क्योंकि खेत में खड़े पीले सरसों के बीज तो गोल-गोल होते हैं। मैं बात को रोचक बनाने के लिए कोई दूसरी बात जानबूझकर छेड़ता हूँ – फिर नदी कैसे? सरसों के खेत में नदी बह रही है क्या? कई शिक्षक साथी मुस्कुराने लगते हैं। फिर दूसरी कोशिश में कोई ‘रसमलाई’ का जिक्र करता है। मैं कहता हूँ कि आसपास पहुँच रहे हैं। लेकिन रसमलाई गोल नहीं चपटी होती है। फिर बात कढ़ी पकौड़े तक पहुँच जाती है। इन बातों का जिक्र यहाँ इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि ये एक मजेदार अनुभव रहा है। कई काम एक साथ होते हैं। मसलन सुंदर-सहज भाषा को पढ़ने और मजे लेने का। उसे समझने की प्रक्रिया। अपने संदर्भ या अनुभवों से जोड़ते हुए सटीक व्याख्या करना और उत्तर तक पहुँचना। हालाँकि ये अनुभव बच्चों के साथ नहीं किया है। शायद यही प्रक्रिया उनके साथ भी की जा सकती है। जो बातचीत के ज्यादा मौके उपलब्ध अवश्य ही कराएगी।

आपने किताब की भूमिका में लिखा है कि दादी-नानी की कहानियाँ वर्तमान युग में शायद पीछे छूट गई हैं। मेरे मिश्रित अनुभव रहे हैं इसको लेकर। एकल परिवार और आजीविका, स्व केंद्रित होने की चाह की वजह से सतह पर ऐसा ही दिखता है। पर जिन जगहों पर मैं कहानी या साहित्य को लेकर काम करने की कोशिश कर रहा हूँ वहाँ अभी ढेरों उम्मीदें हैं अच्छी कहानियों को सुनने-सुनाने की। वहाँ बच्चे भी हैं, दादी-नानियाँ भी हैं और मौके भी होते हैं। आपका ये संकलन वहाँ उत्प्रेरित करने या सबको जोड़ते हुए बातचीत के अतिरिक्त मौके देगा। यह बात बड़ी शिद्दत से मैं महसूस कर पा रहा हूँ।

एक दो और पहेली के अनुभव को यहाँ साझा कर रहा हूँ

एक किले में नौ-दस परियाँ,

आपस में सिर जोड़ के खाड़ियाँ (नारंगी)

इस पहेली के उत्तर में तरबूज, अमरूद जैसे फलों के नाम आ रहे थे। जब उत्तर खुल गया तो एक शिक्षक साथी ने कहा कि – इतनी उम्र हो गई (तकरीबन पचास) हमने कभी ये देखने की कोशिश नहीं की कि नारंगी में कितनी फाँके होती हैं। यानि हम अपने आसपास की उपलब्ध चीजों के बारे में भी कितना कम जानते हैं। या शायद उसको कभी तवज्जो नहीं दिया करते। अच्छी रचना के लिए अच्छे किन्तु सूक्ष्म व्यावहारिक अनुभव कितने जरूरी हैं इसे इन पहलियों से गुजरते हुए महसूस कर पा रहा हूँ। शायद इस वजह से ये पहेलियाँ आज तक हमारे बीच में हैं। इनको पढ़ते हुए यही लग रहा है कि सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ तो नहीं बदले। साढ़े चार सौ सालों में वहीँ के वहीं हैं। बेशक कुछ लोगों के अनुभव और निरीक्षण इस दिशा में नहीं हैं। फिर सीखना कैसे हो रहा होगा ये बड़ा सवाल है?

और भी बातें हैं जो आपको कहना चाहता हूँ। पर लिखने की अपनी सीमाएं हैं। बहरहाल आपको और इसके प्रकाशक एकलव्य को बहुत-बहुत धन्यवाद बाल साहित्य की दुनिया में इस नायाब हीरे को पुनः नए कलेवर में प्रस्तुत करने के लिए।

आपका

एक पाठक 

 


किताब का नाम - अचरज बंगला 

प्रकाशक - एकलव्य 

मूल्य - पचास रूपये मात्र 

      

टिप्पणियाँ

  1. आज के परिप्रेक्ष्य में बेहद प्रासंगिक "अचरज बंगला'' पहेली संकलन!

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