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पाठ की समझ बनाम पाठक की भूमिका

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लेखक,पाठक, शिक्षक/आलोचक बनाम पाठ का मतलब किसी किताब या पाठ को समझने में पाठक की ख़ुद की भूमिका पर बात करने के लिए मैं स्वयं को यहाँ एक पाठक के रूप में रखना चाहूँगा। मेरा ‘पाठ और किताबों (खासकर साहित्य) से’ सिलसिलेवार एवं व्यवहारिक रूप से परिचय स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही हुआ। अपने अनुभव और समझ के विस्तार की प्रक्रिया में किताबों से जुड़ना मेरे जीवन की बड़ी घटना थी। अलग-अलग विषय थे, पाठ थे और किताबें थीं। उनकी अभिव्यक्ति भी थी। उस दौरान जहाँ अपने पसंदीदा पाठ से जीवन भर चलने वाला रिश्ता बना, साथ ही उन पर चर्चा और व्याख्या का लम्बा दौर भी चला। कक्षा और कक्षा के बाहर एक ही पाठ की कई व्याख्याएं थीं। यदि भाषा-साहित्य की बात करूँ तो ‘साहित्य के शिक्षक’ के अनुसार कई बार मैं सही-सही अनुमान लगा पाया था। लेकिन बहुत सारे मौके ऐसे भी थे जहाँ मेरी ‘पाठ की समझ’ को ख़ारिज भी कर दिया गया। उस वक्त तो यही लगता था कि पाठ के विषय में   शिक्षकों की समझ बेहतर है। उनके अनुभव भी विस्तृत एवं व्यापक हैं। इसलिए वे यह तय कर सकते हैं कि पाठ के संबंध में कौन से विचार सही हैं या कौन नहीं। ‘मूल्यांकन का होना’ इस विचार...