बाल साहित्य में पैरोडी और तज़मीन — नकल और सृजन का संतुलन
बचपन में एक फिल्म देखी थी ‘ अमानुष ’ । उत्तम कुमार को ब्लैक एंड व्ह्वाइट स्क्रीन पर पहली बार देखा था । फिल्म की कहानी क्या थी अब याद नहीं । शायद उस समय भी समझ तो नहीं आई थी । लेकिन एक दो गाने याद रहे । उसकी दो बड़ी वजहें थीं , पहला तो रेडियो पर ‘ दिल ऐसा किसी ने मेरा तोड़ा ’ अक्सर सुनने को मिल जाता था । दूसरी वजह इस गीत की पैरोडी , जिसे बड़ों की किसी पत्रिका में मैंने उस वक्त पढ़ा था । पढ़ा क्या था , अपने घर में बहुतों को कई बार पढ़कर सुनाया भी था । ‘ फिल्मी गीतों की पैरोडी ’ के अंतर्गत वह गीत छपा था , और कुछ ऐसा था , दिल ऐसा किसी ने मेरा तोड़ा बर्बादी की तरफ़ ऐसा मोड़ा एक भले मानुष को बन मानुष बना के छोड़ा । जितनी बार मैं पढ़ता , बनमानुष शब्द पर पहुंचते ही मेरी हंसी छूट जाती। हमउम्र लोगों (तब उम्र आठ के आसपास थी) की भी हंसी छूटती , वे पत्रिका लेकर उन पंक्तियों को बार-बार पढ़ते और हंसते। लेकिन बड़े लोगों की इस पर कोई खास प्रतिक्रिया मिली हो , या कोई ठहाके वाली हंसी दर्ज की हुई हो , ऐसा याद नहीं. लेकिन उनके टालने वाले भाव जरूर थे , या इस बात की कोशिश कि थोड़...