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एक किले में नौ-दस परियाँ

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 ( अचरज बंगला के संकलनकर्ता को पत्र) किशोर पँवार जी , नमस्कार ,  बहुत साधुवाद   अद्भुत संकलन के लिये। ' अचरज बंगला ' के साथ तीन महीने पूरे हुए। व्यक्तिगत पाठक के रूप में और शिक्षकों के साथ कहानी/कविताओं (लेखन एवं सुनना सुनाना)की कार्यशालाओं में इसका प्रयोग करते हुए खुद को समृद्ध मानता रहा। पुस्तक मेले में पहली बार इस संकलन को हाथ में लिया था। आकर्षण बहुत सहज था। बहुत छोटी सी कलात्मक किताब। अमीर खुसरो की किताब। पन्ने पलटते हुए सातवीं कक्षा की कुछ पहेलियाँ जेहन में कौंध गई थीं। जैसे   सावन भादों बहुत चलत हैं ,  माघ पूस में थोरी अमीर खुसरों यों कहत हैं तू बूझ पहेली मोरी।   ( मोरी यानि नाली)   इधर को आवे उधर को जावे , हर हर फेर काट वो खावे , ठहर रहे जिस दम वह नारी , खुसरो कहें वारे को आरी।। (आरी)   टूटी टाट के धूप में पड़ी। जों जों सुखी हुई बड़ी।। (बड़ी)   ऐसी कुछ पहेलियाँ अब तक याद रही हैं क्योंकि भाषा आम बोलचाल वाली प्रयुक्त थी। संदर्भ बेहद अपने से थे या शायद उनसे मेरा अभी तक जुड़ाव रहा है। बिहार के सूदूर ग्रामीण क्षेत्र में मेरा गाँव है। जहाँ ब...