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जिसने मिलेनियल्स के बचपन में रंग भरे

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  जिसने मिलेनियल्स के बचपन में रंग भरे   आज सुबह हुई थी जैसे होती है सुबह रोज़   मेट्रो भी अपनी रफ्तार में थी पर मोबाइल की छोटी-सी स्क्रीन पर एक खबर चमकी उस खबर ने सहसा गुजरते समय को थाम लिया जैसे घड़ी की टिक-टिक एक पल को भूल गई हो वो चला गया जिसने हमारे बचपन में चटख रंग भरे थे , जब बचपन रंगों से भरा होता है ,   तो वह सिर्फ़ बचपन नहीं रहता वह तो जादू हो जाता है।   सहसा महसूस हुआ , आँखों में नमी थी   मेट्रो की खिड़की से गुजरता शहर धुंधला रहा था शायद मेरी उदासी शहर में उतर आई थी और फिर यादें लौट आईं , जैसे कोई पुरानी धुन बज उठी हो    रविवार की वो सुबहें जब दूरदर्शन—उस दौर का एकमात्र टीवी चैनल होता था जब सफ़ेद-श्याम पर्दे पर ‘चल मेरी लूना’ की चुलबुली आवाज़ गूँजती थी तब हम बच्चे ‘साइकिल की सैर’ सपने में देखते थे   । ‘ मिले सुर मेरा तुम्हारा’ तो जैसे जादू बुनता था हम गुनगुनाते थे , कई-कई बार बेतरह जैसे कोई अनकहा नेशनल एंथम हो हमारा तब कौन सोचता था कि इनको रचने वाला एक आदमी है ? वह आदमी , जो हमारे बच...

बच्चों के पुस्तकालय: वैश्विक रुझान और बदलता स्वरूप

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(पिछ्ले सप्ताह कोटा (राजस्थान) में 'बाल पुस्तकालय' की एक कार्यशाला में था। वहाँ 'बाल पुस्तकालय के वैश्विक रुझानों पर एक सत्र में बातचीत हुई। उसी बातचीत पर आधारित एक नोट्स यहाँ साझा कर रहा हूँ।)  आज के समय में बच्चों के पुस्तकालय सिर्फ किताबों का भंडार नहीं रहे , बल्कि वे एक ऐसे केंद्र के रूप में उभर रहे हैं , जहाँ बच्चे , उनके परिवार और समुदाय के लोग एक साथ आकर सीखने , रचनात्मकता और आधुनिक कौशलों का विकास कर सकते हैं। ये पुस्तकालय अब केवल किताबें पढ़ने की जगह नहीं हैं , बल्कि ये बच्चों के बौद्धिक , सामाजिक और डिजिटल विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। आइए , हम आज के बच्चों के पुस्तकालयों में देखे जा रहे वैश्विक रुझानों को समझें। पुस्तकालयों का नया रूप: खेल और सीखने का मेल पहले पुस्तकालय शांत जगह हुआ करते थे , जहाँ बच्चे सिर्फ किताबें पढ़ने आते थे। लेकिन अब ये जगहें रंग-बिरंगी , जीवंत और बच्चों के लिए आकर्षक बन गई हैं। आज के पुस्तकालयों को इस तरह डिज़ाइन किया जा रहा है कि बच्चे खेल-खेल में सीख सकें। खेल-खेल में सीखने की जगह: पुस्तकालयों में अब कहानी सुनाने के लि...

The Yam Diyari (Lamp of Yama)

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 Memoir  (My grandmother(Nani) passed away in the first week of January this year. Remembering her...) It was October-November 2012. I was posted in the Collectorate of the Nalanda district in Bihar under one of UNDP project. My own village is in the Bhojpur district, and most of my relatives are in Bihar. The festival season was here, and Diwali was approaching. For two weeks, I had been preparing myself to do something special. I hoped my office would grant me leave at least a week early. I had made up my mind: I would celebrate Diwali at my maternal grandmother’s (Nani) house. She lived alone in the village. It had been five years since my grandfather passed away, and my grandmother was around 80 years old then. But things rarely go as planned! I did get leave, but it was late—on the eve of Diwali, at four in the evening. Initially, I thought I’d leave the next day. But then, for some reason, I felt it was best to leave right away. The last train was at six. I looked out ...

बाल साहित्य में पैरोडी और तज़मीन — नकल और सृजन का संतुलन

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बचपन में एक फिल्म देखी थी ‘ अमानुष ’ । उत्तम कुमार को ब्लैक एंड व्ह्वाइट स्क्रीन पर पहली बार देखा था । फिल्म की कहानी क्या थी अब याद नहीं । शायद उस समय भी समझ तो नहीं आई थी । लेकिन एक दो गाने याद रहे । उसकी दो बड़ी वजहें थीं , पहला तो रेडियो पर ‘ दिल ऐसा किसी ने मेरा तोड़ा ’ अक्सर सुनने को मिल जाता था । दूसरी वजह इस गीत की पैरोडी , जिसे बड़ों की किसी पत्रिका में मैंने उस वक्त पढ़ा था । पढ़ा क्या था , अपने घर में बहुतों को कई बार पढ़कर सुनाया भी था । ‘ फिल्मी गीतों की पैरोडी ’ के अंतर्गत वह गीत छपा था , और कुछ ऐसा था ,   दिल ऐसा किसी ने मेरा तोड़ा बर्बादी की तरफ़ ऐसा मोड़ा      एक भले मानुष को बन मानुष बना के छोड़ा । जितनी बार मैं पढ़ता , बनमानुष शब्द पर पहुंचते ही मेरी हंसी छूट जाती। हमउम्र लोगों (तब उम्र आठ के आसपास थी) की भी हंसी छूटती , वे पत्रिका लेकर उन पंक्तियों को बार-बार पढ़ते और हंसते। लेकिन बड़े लोगों की इस पर कोई खास प्रतिक्रिया मिली हो , या कोई ठहाके वाली हंसी दर्ज की हुई हो , ऐसा याद नहीं. लेकिन उनके टालने वाले भाव जरूर थे , या इस बात की कोशिश कि थोड़...

नाटक गाँव के नाम ‘नरेंद्रपुर’ है!

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  संस्मरण    नाटक गाँव के नाम ‘नरेंद्रपुर’ है! (नाच उपन्यास की पूर्व पीठिका) (नाच किशोर पाठकों के लिये लिखा गया उपन्यास है , जो इस महीने एकलव्य , भोपाल से प्रकाशित हुआ है। तकरीबन दस साल तक इसपर काम करता रहा। इन वर्षों में इसके अलग-अलग ड्राफ्ट तैयार हुए। पाठकों के सुझाव भी मिले। सहयोग के लिये सभी का शुक्रिया।   वैसे इसके लेखन प्रक्रिया की शुरुआत वर्ष 2016 के आरम्भ में हुई थी। जब मुझे एक कथा शिविर में भाग लेने का मौका मिला था। जिसके अनुभवों को आधार बनाकर एक संस्मरण भी लिखा था , जो कथा शिविर की स्मारिका में साथी कथाकारों के साथ प्रकाशित भी हुआ था यहाँ प्रस्तुत है वह संस्मरण ।)     उस शाम बहुत ही असमंजस की सी स्थिति थी। ऑफिस से लौटकर मैं मेल चेक कर रहा था। एक मेल सिवान में आयोजित होने वाले ‘कथा शिविर’ से संबंधित था। शिविर में शामिल होने के लिए सहमति मांगी गई थी। मुझसे जैसे एकदम नए लेखक के लिए इस तरह का आयोजन एक मौके जैसा था- कुछ सीखने , कुछ समझने और कुछ गुनने बुनने का। बाद में मेल में स्थान का नाम भी था- जीरादेई प्रखंड का ‘नरेंद्रपुर गाँव’। जीरादेई का नाम ...